बूझती अँगुलियाँ जगदीश स्वामीनाथन अँग्रेज़ी से अनुवादः अखिलेश
08-Jun-2019 12:00 AM 3346

जलमग्न द्वीप समूह
ऐ है हायरे माया काहिन हैगय गा
आशो के समैया रे माया काहिन है गयरे
तहसील माँ तहसीलदार लूटे
थाना माँ थानेदार
जंगल माँ बंजरिहा लूटे
नहीं हय रे ठिकाना माया काहिन है गयरे
आशो के समैया रे माया काहिन हैगय रे
गोंड करमा गीत1

ऐ हे हाय रे, मुझे क्या हो गया है,
आज के दिन मुझे क्या हो गया,
तहसील में तहसीलदार लूटे,
थाने में थानेदार,
जंगल में बंजारा लूटे,
नहीं है कोई ठिकाना, कहाँ जाऊँ मैं?
नहीं है कोई ठिकाना, कहाँ जाऊँ मैं?
मुझे क्या हो गया है रे, आज के दिन।
जब हम आदिवासी कला की बात करते हैं, तब तत्काल ही ‘आदिम चित्रकार’2 की बात करते हैं - वह जो समय का समुद्र हमसे दूर ले गया है, वह जो यद्यपि हम में से एक हैं और हमारे पास रचा गया, जलमग्न द्वीप समूह की उसी मुख्य ध्ाारा में, जिसे हम आज की संस्कृति मानते हैं से सम्बद्ध हैं। हम मानते हैं कि हम अपनी अभिप्रेरणाओं के प्रति जिम्मेदार रूप से चैंकéे हैं, जो कि सामाजिक शास्त्रों के विकास का अंग है, और हम लोग जिन्हें ‘आदिवासी’ कहते हैं, और जो प्रागैतिहासिक स्थल हैं और पुरानी सभ्यता और संस्कृति हैं, उनकी रचनात्मक उपज की प्रेरणा को जाँचने के लिए अपने औजारों की योग्यता पर भरोसा करते हैं कि उन्हें हम भेद सकेंगे, अनावृत्त कर सकेंगे, जीत सकेंगे। जो बसें हैं इन द्वीप समूहों पर। दूसरे शब्दों में, हम विश्वस्त हैं अपनी क्षमताओं पर, जो अपने इतिहास को फिर से रच सकती है। हमारा सुझाव इस विद्वता को इन संस्कृतियों के पक्ष में प्रासंगिक बनाना है जो हमारे साथ और हमारे पास है, किन्तु जिसे हम समकालीन जगत् की मुख्यध्ाारा मानते हैं, उसमें यह एकीकृत होती नहीं दीखाई देती है। इस यात्रा की ड्राइविंग सीट पर बैठकर हम यह भूल जाते हैं कि हम खुद भी इस हिस्टाॅरिकल समय के शिकार हो सकते हैंः यदि हम जिसे ‘हिस्टाॅरिकल’ मान रहे हैं, उसे आत्मविश्वास के साथ बरत रहे हैं, तब शायद हमें भविष्य को भी याद रखना चाहिए जो हमें चिढ़ाता हुआ मुस्कुरा रहा है।
तब यदि किसी को आदिवासी कला का अध्ययन करना हो, यह निश्चित ही सुविध्ााजनक होगा उन समुदायों में कला को एक बन्द रीति की तरह स्थापित कर दें। हम वैसा नहीं कर रहे हैं। आदिवासी कला से सम्बन्ध्ा बनाते वक्त हम दरअसल उन लोगोें की कला के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जो हमारी जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा होते हुए, हमारे साथ हैं और हमारे में से हैं, इसी आसमान के नीचे और इसी ज़मीन पर रहते हैं, किन्तु ऐसा लगता है कि हिस्टोरिकल समय हम दोनों के बीच अजेय अवरोध्ा बना हुआ है। डीन मैक कानेल टिप्पणी करते हैं- ‘यह ख़ासतौर पर व्यंग्य का विषय है कि कुछ नृविज्ञानी बुरी तरह से आभिजात असभ्यता और सांस्कृतिक प्रामाणिकता से चिपके हुए हैं जैसे वह कहीं और उपस्थित है।’ ‘‘नृवंश विद्या समझती है कि संस्कृति, भूगर्भीय रचना की तरह प्राकृतिक नहीं हैः इसलिए कभी भी प्रामाणिक नहीं हो सकती; वह ठीक उसी क्षण मर जाती है जब अपने अस्तित्व पर सवाल करना बन्द कर देती हैं।’’3 सच है, संस्कृति प्राकृतिक भूगर्भीय रचनाएँ नहीं है, प्रकृति और संस्कृति के बीच के इस द्विविभाजन को हम स्वीकार नहीं करते। वस्तुतः मनुष्य प्रकृति की ही संतान है और संस्कृति मनुष्य द्वारा अभिव्यक्त की गयी, प्रकृति की अभिव्यक्ति है। इस अर्थ में संस्कृति भी प्राकृतिक है। इस बात का महत्त्व आगे प्रकट होगा जैसे-जैसे हम बढ़ेंगे। किन्तु यहाँ ध्यान देना होगा कि समस्त प्रकृति के साथ हमें जिस एकता की अनुभूति होती है तथाकथित आदिवासी उसे शारीरिक स्तर पर मानव रूपी रूपान्तरणों के सहारे पाता है। उपनिषद् के विचार आध्यात्मिक या दार्शनिक स्तर पर यही पाते हैं।
बीसवीं शताब्दी की एकदम शुरूआत में ही पिकासो ने यूरोपीय विरासत को प्रश्नांकित किया था और उसके परिणाम बहुत ही दर्शनीय और हिला देने वाले थे। अफ्रीका और भूमध्यसागरीय आदिवासी कला ने आध्ाुनिक कला दृश्य पर चढ़ाई कर दी थी और यह मुठभेड़ आध्ाुनिक कलाकारों के दृष्टिकोण में उल्लेखनीय और स्थायी बदलाव ले आई। अलभ्य कलाकृतियों से दूर, आदिवासी कलाकृतियाँ एक सशक्त उपस्थिति बन गई, और उसने एक अर्थ में पश्चिमी कला आन्दोलनों की नींव हिलाकर रख दी।
निश्चित ही, जैसा विलियम राॅबिन अपने निबन्ध्ा ‘आध्ाुनिक पुरातनवादः एक परिचय’ में कहते हैं- ‘‘बदनाम विकासवादी मिथ के अवशेष अभी भी हमारे मानस में ध्ाँसे हुए हैं। अग्रणी आध्ाुनिकतावादियों ने हमसे दशकों पहले यह कहा कि आदिम लोग, जो कला बनाते हैं, वह अक्सर गहरी जटिलता के सामान्य दिखाई देने वाले नतीजे हैं। इसलिए हमें इस बात पर आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि नृशास्त्र ने उनकी संस्कृतियों के बीच की तुलनीय जटिलताओं को हमारे सामने खोला है। मुझे आशा है कि कम से कम जब तक वह मनुष्य की जीवन-शक्ति से सम्बद्ध है, विकासवादी पूर्वाग्रह साफ़-साफ़ बेतुके हैं।’’4 और पीछे 1927 में फ्राँज बुआस ने रेखांकित किया, ‘‘जो भी आदिम जनजातियों के साथ रह चुका है, उनके सुख और दुखों, उनकी कठिनाइयों और उनके वैभव का साझा किया है, वो यह जानता है कि वे माइक्रोस्कोप के नीचे रखे गये कोशिका के निरीक्षण का विषय नहीं हैं, वे भावनाओं और सोच से भरे मनुष्यगण हैं। वे इस बात पर सहमत होंगे कि ‘आदिम स्मृति’, ‘जादुई’ या पूर्व ‘तर्कसंगत’ जैसी कोई सोच अस्तित्व में नहीं है, किन्तु हर व्यक्ति ‘आदिवासी’ समाज में दूसरों की तरह ही एक मनुष्य है, एक औरत है, एक बच्चा है। हमारे ही समाज के आदमी, औरत और बच्चे की तरह सोचने, महसूस करने और व्यवहार करने वाला।’’5 यद्यपि बुआस के इस कथन पर हम बहस कर सकते हैं, किन्तु सामान्य तौर पर वह यह कह रहा है कि तथाकथित आदिवासी भी अपने जातिगण लक्षणों के साथ समृद्ध हैं। हमारी तरह। लेविस स्ट्राॅस गहरे प्रेम और क्षमता के साथ इसी तरह के विचार को रेखांकित करते हैं।6 फिर भी हिन्दुस्तान में जहाँ अभिजात शासन करने वालों की उदासीनता के कारण, देहात में शासन कर रहे बरसों पुराने पूर्वाग्रहों और शक्तियों के द्वारा पुष्ट, राज्य सरकार की सराहनीय और प्रशंसनीय सद्इच्छाओं के बावजूद यह परिदृश्य अवसाद से भरा है।
आदिम समुदाय और संस्कृति कई तरह के बदलाव और रूपान्तरण के स्तर से गुज़र रही हैं। उदाहरण के लिए गोंड, जो मध्यप्रदेश और हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी जनजाति है, उनके कुछ सह-समुदायों को छोड़कर सभी ने कुछ हद तक दबंग हिन्दू संस्कृति के साथ साहचर्य और साéिध्य कायम किया है, जबकि सरगुजा और रायगढ़ जिले के अध्ािकांश ऊँराव जनजाति के लोगों ने ईसाइयत को अपना लिया है और पहाड़ी कोरबा, जो कि वास्तव में अपने पारम्परिक रीति-रिवाजों और जीने के साध्ानों को खो चुके हैं, वे आत्मा को झकझोरने वाले नैतिक सांस्कृतिक और सामाजिक अनुभव की नाजुक स्थितियों से गुज़र रहे हैं। इतिहास की अंध्ाी देवी द्वारा पवित्र किये गये उपभोक्तावादी ध्ान-लोलुपता से प्रोत्साहित, रच-बस जाने वाले आध्ाुनिक तकनीक के तगड़े प्रभाव जो हम पर जबरन लादे जा रहे हैं, ने नष्ट किया है और नष्ट कर रही हैं समस्त संस्कृतियों को और जो लोग आडम्बरहीन स्वतंत्रता में रह रहे हैं, उन्हें वेतन पाने वाले गुलाम और गरीबों में घटाया जा रहा है।
वेरियर एल्विन ने बहुत ही विषाद और दूरदृष्टि के साथ लिखा हैः ‘‘दुनिया के साध्ाारण, पूर्ववर्ती साक्षर लोगों के लिए ये दुष्कर समय है। हिन्दुस्तान में तेजी से आगे बढ़ते हुए देश के स्वतंत्र जीवन में आदिवासियों को अपनी जगह पाने के लिए आगे आना चाहिए। किन्तु एक जोखिम है यहाँ, अफ्रीका और पैसेफिक के दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण बतलाते हैं कि किस तरह इन तेज और उत्साही परिवर्तनों ने, जो कि बाहरी संस्थाओं द्वारा लाये जा रहे थे, इन लोगों की कलाओं पर विनाशकारी प्रभाव डाले। आदिवासी भारत को हज़ारों छोटे स्कूलों से भरने के कारण एक गम्भीर खतरा यह भी है कि जब चमकती आँखें लिये हुए लड़के, लड़कियों को भाषाओं की लिपि के गूढ़ अर्थों को निकालना सिखाया जा रहा है, तब उनकी भाषा के अलावा, उन्हें प्यार और सुन्दरता को समझना नहीं पढ़ाया जा रहा है। उनके मस्तिष्क को संकुचित किया जा रहा है कि वे यह मानें कि जो भी प्राकृतिक है, खुला है और सामान्य है किसी न किसी तरह बुरा है। उनके हाथों को शायद निकृष्ट ध्ाागों को बुनना सिखाया जा रहा हो, जिससे वे अपने शरीर की सुन्दरता को छिपा सकें, किन्तु उन सुन्दर बातों को नहीं सिखाया जा रहा है, जिससे वे अपने बालों को, गले केा और भुजाओं को सजा सकते हैं। यहाँ यह खतरा है कि वे अपने पुराने जीवन को खारिज करने को प्रेरित हों और उन्हें इसकी जगह एक छोटा-सा सुझाव भर मिले कि कैसे लय, जीवन-शक्ति, उत्साह और उल्लास को प्यार करें?’’7
यदि कहीं स्थितियाँ हैं तो अच्छे के लिए नहीं बदली हैं। हिफाजती विध्ाान और सारे सुरक्षा उपायों के बावजूद इन समुदायों को देश की मुख्यध्ाारा में लाने का प्रस्ताव वर्तमान सामन्ती और पूँजीवादी शोषण की अवस्था में डराता है। इन लोगों को समूह और श्रमजीवी मेें बदलने की प्रक्रिया ऐतिहासिक अनिवार्यता की तरह ली गयी है और जिसकी कीमत देश को अपनी उéति के रूप में चुकानी है। इन समुदायों को अकेला छोड़ देना भी अपने आपमें योग्य प्रस्ताव नहीं दीखता। वे अपने जंगलों के उत्तराध्ािकारी नहीं रह गये हैं, जंगल (जो कि ‘शहरी और तरक्की की ज़रूरतों’ को पूरा करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किये जा रहे हैं।) बचाने के अभियान के कारण वे अब अपनी पारम्परिक खेतीबाड़ी भी नहीं कर सकते हैं, वे शिकार भी नहीं कर सकते हैं और मुद्रा बचत की घुसपैठ में प्रकट रूप से अपरिवर्तनीय दीख पड़ते हैं।
यह ध्ाारणा कि उनकी स्वतंत्रता में हमारी स्वतंत्रता है, उनके आत्मसम्मान में हमारा आत्मसम्मान है, उनकी निजी पहचान में हमारी निजी पहचान है, कि हमें उनसे ज़्यादा सीखना है बजाय इसके कि वे हमसे कुछ सीखें, जैसी पवित्र बातें कही जा रही है, किन्तु हमेशा इनकी पूरी तरह से उपेक्षा की गई है। एक नये स्वतंत्र संसार में प्रकट होने की सम्भावना की जीवाणु सहचर्यता जो शायद दोनों के लिए उत्पे्ररक हो सकती थी तथाकथित आदिवासी समुदाय हमारे लिए अब कहीं दूर छूट गये है। ऐसा जान पड़ता है बाहर के इस तरह के सारे सम्पर्कों ने इन समुदायों का अहित ही किया है।
इस तरह, इस झुटपुट क्षेत्र में, अध्ाकचरे आध्ाुनिक विचार पारम्परिक रूढि़वादी नीति से डटकर मुकाबला करते हैं और दोनों साथ संस्कृति के नियमों के विरुद्ध और इस उपमहाद्वीप के देहातों में रह रहे लोगों के लोकाचार के साथ मिलकर संघर्षरत पाये जाते हैं, पहाड़ों-पठारों, जंगलों और रेगिस्तानों में, जिन्हें हम आदिम जाति की तरह जानते हैं, अब इन्हें हम हिन्दी के एक ऊँचे और बेहतर शब्द आदिवासी से सम्बोध्ाित करेंगे।
हम इन आदिवासी समुदायों की नृशास्त्रीय या आर्थिक, सामाजिक स्थितियों का अध्ययन नहीं कर रहे हैं। हमारी कोशिश है कि हम उनकी कला के प्रति अपनी आँखें खोलें। यदि हमने कठोर टीका से शुरूआत की है, तब यह, ‘करमा गीत’ की वेदना के बावजूद आदिवासी रचनात्मकता की बहुलता के नष्ट होने के कारण भी नहीं, बल्कि हमारी क्षीण दृष्टि के प्रति अपनी चिन्ता है। इस निबन्ध्ा का प्रयोजन अब आदिवासी कलात्मक अभिव्यक्ति के प्रति हमारे सरोकार के बजाय प्रतिबद्धता है, जो कि हमारी अभिव्यक्ति भी हैः इन द्वीप समूहों को कला की इस शाश्वत उपस्थिति में घुलने दो।
सन्दर्भ सूचीः
1. मण्डला (मध्यप्रदेश) के एक परध्ाान द्वारा प्रदत्त। परध्ाान गोंडों के गायक-वादक के रूप में जाने जाते हैं।
2. आदिम शब्द का प्रयोग अवमानसूचक अर्थ में कला-इतिहास एवं नृशास्त्रीय-साहित्य में नहीं किया जाता है। परन्तु तथाकथित विशेषज्ञों द्वारा ‘पिछड़ापन’ के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है।
3. डीन मैककेनल, एथ्नोसेमियाॅटिक्स इन सेमियाटिक्स आॅफ़ कल्चर, माॅटन पब्लिशर्स, 1979, एडीटर्स-इरिन पोर्टिस विनर - जाॅ उमीकर सेबाॅक.
4. ‘प्रिमिटीविज़्म’ इन ट्वेन्टीथ सेन्चुरी आर्ट, 1985. यह पुस्तक म्यूजियम आॅफ़ माडर्न आर्ट, न्यूयाॅर्क द्वारा 1984 में आयोजित की गई ‘एक्जीबिशन आॅफ़ ट्राइबल एंड माडर्न आर्ट’ के साथ प्रकाशित की गयी थी।
5. प्रिमीटिव आर्ट, फ्रेन्ज बाॅयस, डोवर पब्लिकेशन्स, आइ.एन.सी., न्यूयाॅर्क.
6. द सेवेज माइंड, द यूनिवर्सिटी आॅफ़ शिकागो प्रेस, 1966, द वे आॅफ़ द मास्कुस, जोनाथन केप, लंदन, 1983; स्ट्रक्चरल एन्थ्रोपोलाॅजी, लंदन, 1963, बाय क्लाॅड लेवि-स्ट्राॅस.
7. द ट्राइबल आर्ट आॅफ़ मिडिल इंडिया बाय वेरियर एल्विन, आॅक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, 1951.

आदिवासी
भारत सरकार की सूची के अनुसार, अनुसचित जाति और जनजाति आदेश (संशोध्ान) अध्ािनियम, 1976, मध्यप्रदेश में 46 अनुसूचित जनजाति रहती हैं। प्रदेश में 1981 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों की कुल जनसंख्या 19,87,031 है। पृथक् जनजातिय समुदायों और समूहों के आंकड़े उपलब्ध्ा नहीं हैं। इन पृथक समुदायों की 1971 की जनसंख्या की जनगणना के आंकडे़ संलग्न हैं।1 हालाँकि यह सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करता है, जैसा कि प्रत्यक्ष है अध्ािकारियों द्वारा अपनाये गये तरीकों और मानदण्डों के बीच प्रचलित घालमेल के कारण इन आंकड़ों को सही-सही इकट्ठा नहीं किया गया है। 1961 में मध्यप्रदेश की जनगणना का उल्लेख करना उचित होगाः ‘अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सूची (संशोध्ाित) आदेश, 1956 के अनुसार रायगढ़ जिले में 15 जातियाँ और 32 जनजातियाँ हैं, जिन्हें अनुसूचित कहा गया। इसमें वे समान समूह के आंकड़े शामिल नहीं हैं, जिन्हें सूची में शामिल किया गया है। उदाहरण के लिए गोंड, जो ऊपर उल्लेखित आदेश में 40 समानार्थी समूहों में शामिल हैं, जिसे यहाँ एक जनजाति के रूप में दर्शाया गया है और इसी तरह चमार, जो आठ या इससे ज़्यादा समानार्थी समूह है, जैसे सत्नामी और सूर्यवंशी, एक जाति की तरह बताये गये हैं।’ और ‘यह दिलचस्प है पण्डो जनसंख्या बढ़ गईं 1964 में, जो कि सिफऱ् 4 है। पण्डों को भूईंयाँ के साथ रखा गया है.... हीरालाल साबित करते हैं कि पण्डो सम्भवतः कँवर के सादृश्य है, किन्तु शूबर्ट ने कोरबा और उनके बीच पक्की समानता देखी है।’ यह भ्रम सरकारी काम करने के ढंग में ही नहीं है, बल्कि सामाजिक नृशास्त्रियों मेें भी है। रसेल और हीरालाल बैगाओं को कुलारियन जाति से सम्बद्ध बतलाते हैं अपनी किताब खण्ड-1 में और खण्ड-4 में वे उन्हें आदिम द्रविडि़यन जनजाति बतलाते हैं।2 यह स्टीफन फुक द्वारा भी दर्शाया गया है, उनकी किताब ‘द एबोरिजनल ट्राइब्स आॅफ़ इण्डिया’ में वह कहते हैंः ‘मुण्डारियन बोलने वाली जनजातियाँ नृशास्त्रियों द्वारा पूर्व-द्रविडि़यन कई तरह से उल्लेखित की गयी हैं, कोलारियन, द्रविडि़यन, आॅस्ट्रालाइड्स, निसाडिक्स और आॅस्ट्रिक।’3 कभी भाषा की बुनियाद पर, कभी प्रजाति की बुनियाद पर टिके इन अनेकों प्रस्तावों के कारण यह भ्रम बुरी तरह परेशान करने वाला हो गया।
आदिवासी जनजातियों के बीच सुस्पष्टता लाने का प्रश्न नृशास्त्रियों और नृविज्ञानियों के सतत् सिरदर्द और नाश का मूल्य बना। जैसा कि आन्द्रे बताई कहते हैंः
‘आज के हिन्दुस्तान में, उस निमित्त से नृशास्त्रियों के अनुसार आदर्श जनजाति की ध्ाारणा का उत्तर मिलना दुर्लभ है। हमें संक्रमण काल में मौजूद जनजातियाँ मिलती हैं। दूसरी तरफ, हम लोग प्रतिबद्ध हैं हमारी नीति की प्रकृतियों से, जिसमें कुछ समुदायों को आदिवासियों की तरह मानते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है कि हम इन समुदायों का इस विध्ाि से पता लगाएँ बशर्ते कि हम अपने काम करने के ढंग के प्रति चैंकस हों और बहुत ज़्यादा विद्याभिमानी न हों। यदि हिन्दुस्तान में कोई ‘असली’ जनजाति नहीं है, यहाँ बहुत से समूह हैं जो कुछ साल पहले तक आदिवासी थे, और जो लगभग, कई अर्थों में उन्हीं के समान है। हिन्दुस्तान में हम किसी बनी-बनायी परिभाषा के साथ क्षेत्र में जनजातियों को जाकर नहीं ढूँढ़ सकते हैं। सारा जोर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर दिया जाना होगा।ऐसी प्रक्रिया जिसके द्वारा जनजातियाँ रूपान्तरित हो गयी, ऐतिहासिक प्रक्रिया जो इन पूर्ववर्ती अनुमानों के अनुसार है। बहरहाल क्या हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि इन्हें आदिवासी मानना चाहिए या नहीं?’4
और श्यामाचरण दुबे के अनुसारः
‘इस श्रेणीबद्धता पर विवाद नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह राजनीतिक कसौटी पर आध्ाारित हैं, भारत के संविध्ाान के अनुसार कुछ समुदायों को अनुसूचित जनजाति में शामिल किया जा सकता है। यह प्रशासनिक कदम हर समुदाय को एक ‘अनुसूचित जनजाति’ में शामिल करता है और उसे ख़ास सुरक्षा और विशेष अध्ािकारों की पात्रता देता है। कुछ समुदाय पारम्परिक रूप से आदिवासी माने जाते हैं, वे भी अनुसूचित में शामिल कर लिये गये, किन्तु कुछ को छोड़ ही दिया गया। और दूसरी तरफ, कुछ समुदाय पारम्परिक रूप से आदिवासी नहीं माने जाते थे, उन्हें भी अनुसूचित घोषित किया गया है। उदाहरण के लिए मुसलमान और लक्षद्वीप के निवासी (जो पहले लाका द्वीप, अमीन द्वीवी और मिनिकाॅय द्वीप समूह की तरह जाने जाते थे) और हिमाचल प्रदेश के किéौर जिले के सभी रहने वाले (ये सब हिन्दू जाति के समूह से बने हैं, जो किéौर में एक साथ आ गये) अब अनुसूचित जनजाति की तरह वर्गीकृत हैं। यह सूची अन्तिम नहीं है, इसमें जोड़ना-घटाना अभी भी सम्भव है।’5
सहृदय वेरियर एल्विन ने भी कुछ इसी तरह की समस्याओं का सामना किया था। अपनी आत्मकथा में, वह लिखते हैंः
‘गोंड के अलावा हमारे पास परध्ाान था, आकर्षक और रोमांटिक गवैया, जिसने गोंड कथाओं को बचाकर रखा है और जंगली बैगा हैं और अगरिया हैं। इनमें से कोई भी हमारे पड़ोस में नहीं रहता है, जिन्हें पर्यटक रंगीला कहते हैं। ये सब अपनी भाषा खो चुके हैं। हिन्दुस्तान के पूर्व में रहने वाले की तुलना में अब इन्हें कोई भी आदिवासी नहीं कहेगा। करंजिया की जनसंख्या और कुछ आस-पड़ोस के गाँव बहुत घुले-मिले हैं। कई तरह की हिन्दू जातियाँ थीं यहाँ और कुछ मुसलमान भी। इसका मतलब यह है कि बहुत शुरूआत से ही हमने आदिवासी समुदायों में विशेष रुचि नहीं ली। किन्तु हमारी चिन्ता उन सबके साथ जुड़ी थी जो गरीब या शोषित थे।’6
यह इस निबन्ध्ा का कार्यक्षेत्र नहीं है कि सामाजिक अवध्ाारणा ‘आदिवासी’ की सही परिभाषा बनायें और फिर उन स्थितियों पर लागू कर दे जो हमें मिली हैं इन समुदायों के बीच काम करने के दौरान। चाहे जैसा हो, ये समुदाय जो अनुसूचित हैं, नृशास्त्री इनके आदिवासी होने पर सामान्य तौर पर सहमत हैं। हम हिन्दी के आदिवासी शब्द का ही इस्तेमाल करना पसन्द करेंगे, आदिम की जगह, जैसा ऊपर कहा है। अनुभव के आध्ाार पर यह ज़्यादा आसान होगा इन समुदायों को श्रेणीबद्ध हिन्दू जाति की प्रणाली के बाहर रह रहे समुदायों की तरह सीमांकित करें, भले ही यह कसौटी भी बहुत सख्ती से लागू नहीं होती रसेल और हीरालाल कहते हैं किः
‘अग्रता के अनुबन्ध्ा में चैथा समूह, अनार्य और देशज जनजातियाँ मिलाकर जो वास्तव में जातिप्रथा के बाहर हैं, जिन्हें हम हिन्दू सामाजिक संगठन की तरह मानते हैं। कम से कम जब तक, वे अपने आदिवासी देवी-देवताओं को पूजना जारी रखते हैं, और ब्राह्मण और गाय के प्रति कोई सम्मान नहीं दिखलाते हैं।ये आदिम जातियाँ हालाँकि हिन्दू शासन प्रणाली के विभिé पदों में शामिल हो गये हैं। उनमें से कुछ सरदार बहुत पहले ही जो दबंग थे, क्षत्रिय या राजपूत जाति में समायोजित कर लिये गये थे और कुछ राजपूत वंशों की उत्पत्ति के अवशेष हम पुराने भार और आदिम जनजातियों में देख सकते हैं... और दूसरी तरफ, हिन्दू गाँव में वे जनजातियाँ हैं जिन्हें दबाया गया और जिन्हें दासों की तरह रहने की अनुमति दी गयी और समाज में जिनका स्तर दास या नीचे का है, वे अपवित्र जाति की तरह विकसित हो गयीं, जिनमें मजदूर, बुनकर, चमार और अन्य लोग शामिल हैं, जो सबसे नीचा सामाजिक समूह का दर्जा पाते हैं। वे आदिम जनजातियाँ, जो अभी तक अपना अलग अस्तित्व बनाये हुए हैं, दास के रूप में नहीं, किन्तु जंगल के इलाकों में अपने गाँव में रह रहे हैं और अपनी भूमि के मालिक हैं। इसी कारण वे उन अपवित्र जाति से कुछ ऊपर की स्थिति में हैं। यद्यपि जो हिन्दू विचार के अनुसार गौ मांस भक्षण के कारण पूर्णतः भ्रष्ट हैं।’7
हालाँकि ये स्थितियाँ इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिख आदि संघटित ध्ार्मों पर नहीं लागू होती हैं। किन्तु इसके विपरीत कुछ आदिवासी समुदाय या वर्ग हैं जिन्होंगे ईसाई ध्ार्म अपना लिया। उदाहरण के लिए रायगढ़ और सरगुजा में रहने वाले उराँव जाति के अधिकांश लोग - ईसाई ध्ार्म परिवर्तन के कारण या चाहे जैसे भी, उनकी आदिवासी पहचान खो नहीं गयी है। इसमें हम, आर्थिक पिछड़ापन, निम्न स्तर का तकनीकी विकास, शिक्षा का अभाव, आदि खराब परिस्थितियों में रह रहे समुदायों को आदिवासी में परिभाषित नहीं कर रहे हैं। हमारी मुख्य कसौटी समुदाय के सदस्यों की उस क्षमता की है जिसके कारण दबंग हिन्दू जाति प्रथा में दास की स्थिति का बहिष्कार करते हुए वे जीवित बचे रहें। यह भी एक कारण हो सकता है कि क्योें ऐसे कई समुदायों या वर्गों ने ईसाइयत को गले लगाया बजाय हिन्दू व्यवस्था का अंग बनने के। निश्चित ही कुछ तो मिशनरी द्वारा अपनाया गया समर्पित भाव और कुछ ध्ाूर्त पद्धतियों ने भी उत्प्रेरित किया।’8 जो भी हो इसका मतलब यह भी नहीं है कि आदिवासी और हिन्दू व्यवस्था के बीच किसी तरह की भीतरी घुसपैठ या कोई सम्बन्ध्ा नहीं है। कई उदाहरण एकदम साफ़ है, जैसे- राज गोंड, जिन्होंने चुना कि उनके साथ राजपूतों जैसा व्यवहार किया जाये और भिलाला हैं, जो भील को नीचा देखते हैं। इसके सिवा इण्डो-आर्यन और आदिवासियों के बीच सम्बन्ध्ा कुछ तीन हज़ार साल या उससे ज़्यादा फैला रहा। हिन्दू व्यवस्था द्वारा बड़ी संख्या में आदिवासी जादुई भक्ति और देवी-देवताओं को सोख लिया जाना, इस बात का प्रमाण है कि आदिवासी हमेशा अपना सब कुछ नहीं गँवा रहे थे। इसके विपरीत आदिवासी समुदायों में कई उत्पत्ति के मिथ पर हिन्दू प्रभाव की छाप दिखती है।
वस्तुतः जैसा कि यह मजबूती से स्थापित हो चुका है कि जातिगत भेद का आध्ाार होने के अभाव में या उपस्थिति में कुछ कम या ज़्यादा, हमारी जनजातियों के पहचान के लक्षण नहीं हैं, हमें ज़रूरत नहीं है कि इस क्षेत्र के विशेषज्ञों के बीच चल रहे सुदीधर््ा तर्कों के जंगल में फँस जायें। तो भी शायद यह ज़रूरी है कि उस वृहत् जातीय गतिविध्ाियों की एक मोटी रूप-रेखा दी जाये जो इस उपमहाद्वीप को आबाद करने चले आये और इन अनेक आदिवासी समुदायों को पहचानने की प्रक्रिया में जो आज के मध्यप्रदेश में विद्यमान है। यद्यपि ये गतिविध्ाियाँ नहीं भी हुई हों, तब भी यह तथ्य बना रहता है कि कुछ लोग वर्ण-व्यवस्था (बाद की जाति व्यवस्था) के बाहर रखे गये थे, चाहे उसका आध्ाार शुद्धता हो, प्रजातीय पृष्ठभूमि हो या आज जिन्हें हम वैदिक या हिन्दू की तरह जानते हैं।
पारिभाषिक आदिवासी का शब्दशः अर्थ ‘देशी’ है। यह अनुमान है कि भारत में रहने वाले ये लोग तथाकथित इण्डो-आर्यन या वैदिक लोगों के आने के पहले से ही यहाँ रह रहे थे। कुछ विशेषज्ञ इस बात का समर्थन करते हैं कि इण्डो-आर्यन या ऋग्वैदिक लोग भारत के बाहर से नहीं आये, बल्कि ऋग्वेद में वर्णित भू-भाग ‘सप्तसिन्ध्ाु’9 के निवासी थे। यह दृष्टिकोण कुछ समस्याएँ पैदा करता है और ज़्यादातर विशेषज्ञ कहते हैं कि इण्डो-आर्यन भारत में 1500 से 1000 ईसापूर्व उत्तर-पश्चिम से आये। डाॅ. काणे के अनुसार ऋग्वैदिक समय 4000 से 1000 ईसापूर्व10 के बीच फैला है। जैसा भी हो, हिन्दुओं के समर्थक देशी लोगों की तरह भाषायी आध्ाार चुनते हैं, जो अपर्याप्त है। भाषायी आध्ाार और अन्य प्रमाण के अलावा जो अपर्याप्त हों या इसके विपरीत, प्रश्न यह है कि ऋग्वैदिक लोग यदि यहाँ के मूल निवासी हैं, जो आज का पंजाब और उसके आसपास का इलाका है, तब हम हड़प्पा घाटी की सभ्यता को कैसे परिभाषित करेंगे? वैदिक लोगों और हड़प्पन के बीच मौजूद सम्बन्ध्ाों के बारे में कोई संकेत नहीं मिलता सिवाय कुछ मुठभेड़ों के सन्दर्भों के और संस्कृतियों के विनाश के जो गिरोह के घुस आने की तरह देखा जा सकता है, जैसा पुपुल जयकर लिखती हैं ः
‘... 1750 ईसा पूर्व में उत्तर पश्चिम से भारी हमलों में जब हड़प्पन संस्कृति के कई शहर नष्ट हुए, और पितृसत्तात्मक आर्यन की मातृसत्तात्मक हड़प्पन के साथ पहली मुठभेड़ हुई। वेद की पहली पुस्तक, ऋग्वेद के एक स्तोत्र, में अपने भगवान से कहती है- तेरे डर से, युद्ध का इन्तज़ार किये बगैर अपनी चीज़ों का परित्याग कर, काले रंग के निवासी भाग गये,’ और फिर, ‘प्रहार करो, ओ माध्ावन (इन्द्र) जादूगरनियों के मेजबान, विलास्थानक शहर के अवशेषों पर।’ और, बाद के उद्धरण में कि ‘लोग जो इन उजड़े हुए जगहों पर रहते थे, उनके पद छिन गये, यह सब रहने योग्य जगह बाँट दी गई, वे, ओ अग्नि, अपनी जगह से खदेड़ दिये जाने पर विस्थापित हो दूसरी जगह जा बसे हैं।’11
परास्त और हारे हुए के साथ गुलामों का व्यवहार किया जाता है, जैसा कि डाॅ. काणे कहते हैंः
‘ऋग्वेद में कई जगह (1@73@7; 2@3@5; 9@97@15; 9@104@4; 9@105@4; 10@124@7) ‘वर्ण’ शब्द का अर्थ ‘रंग या प्रकाश’ है, दूसरी जगह (जैसे कि 2@12@4; 1@179@6) वर्ण संकेत उन लोगों से सम्बद्ध हैं, जिनकी चमड़ी का रंग काला या सफेद है। तैतिरीय ब्राह्मण में (1@2@6) कहा गया है कि ब्राह्मण पवित्र वर्ण का है और शूद्र असूर्य वर्ण का है। ‘असूर्य वर्ण’ का अर्थ ‘शूद्र जाति’। आर्यन और दास या दास्युस के बीच मित्रता नहीं है, इसके अनेक तथ्य ऋग्वेद में पाये जाते हैं। इसी अर्थ में इन्द्र और दूसरे देवताओं की स्तुति की जाती है कि दासों को हराने में उन्होंने आर्यों की कई तरह से सहायता की (1@51@8; 1@103@3; 1@117@21; 2@11@2, 4, 18, 19; 3@29@9; 5@70@3; 7@5@6; 9@88@4; 6@8@3; 6@25@2)। दास और दास्युस एक ही लोग हैं (ऋग्वेद- 10@22@8)। दास्युस अवरत , जो देवताओं के नियम को नहीं मानते और व्यवहार में नहीं लाते और अक्रूतू, जो यज्ञ को व्यवहार में नहीं लाते हैं, मूघरावाच, जिनकी ज़बान साफ़ व मीठी नहीं है और अप्नसाह, जो मूर्ख और चपटी नाक वाले हैं। दास या दास्युस को असुर कहते हैं।’12
इण्डो-आर्यन बाहर से आये या नहीं। ऊपर के वर्णन से यह साफ़ दिखता है कि ऋग्वैदिक समय के दौरान कुछ लोग जो मूल वैदिक नहीं थे या तो अध्ाीनस्थ थे या पकड़े गये थे या भगा दिये गये थे। जो पकड़े गये थे, वे अध्ाीन थे और शूद्र के स्तर पर बहिष्कृत थे, और इस बहिष्कार का शारीरिक नृशास्त्रीय चारित्रिक आध्ाार था। जैसे कि चमड़ी के रंग का काला होना और नाक का चपटा होना। ऋग्वैदिक समय में जाति व्यवस्था के अल्प विकसित अवशेष हम ढूँढ सकते हैं। जो भी हो, जैसा कि क्रोएबर ने बहुत पहले इशारा किया थाः ‘जाति व्यवस्था को ही नस्लों के बीच संघर्ष का श्रेय जाता है। अपने वंश और संस्कृति को शुद्ध रखने के लिए खींची गयी एक रंग भेदीय रेखा। यदि ऐसा हुआ है, तब यह बुरी तरह से निष्फल रहा। जैसा कि आध्ाुनिक भारत का भौतिक नृशास्त्र बतलाता है। नस्लीय व्याख्या प्रत्यक्ष रूप से अध्ाूरी है।’13 सचमुच ही यदि नस्ल और रंग जाति व्यवस्था का एकमात्र आध्ाार है, तब कैसे एक काली चमड़ी का ब्राह्मण हो सकता है? यह स्पष्ट है कि यह पद्धति जोर जबर्दस्ती से या सुविध्ाा के लिए अनार्य मूल के लोगों को ऊँचे स्तर पर भी दखलन्दाज़ी की छूट देता है। वर्ण व्यवस्था के कठोर हो जाने पर और जन्म की जगह व्यवसाय इसकी कसौटी हो गई, यह हिस्टाॅरिकल विकास है, जो हमारे निबन्ध्ा का विषय नहीं है। यह कहना सन्तोषजनक है कि जो लोग अनेक स्तरों पर शामिल नही ंकिये गये, सबसे निचले स्तर पर भी, हमारी रुचि और पूछ-परख का आध्ाार हैं।
प्रमुखतः यह माना गया है कि इस उपमहाद्वीप पर सबसे पहले आने वाले नेग्रीटोज़ थे, जो सब जगह थे, किन्तु लुप्त हो गये और देश में उनके चिह्न और अवशेष अनुमानतः भिé-भिé नस्लों के वंश-क्रम में पाये जाते हैं। इस परिदृश्य पर दूसरी उभरने वाली जाति प्रोटो-आॅस्ट्रोलायड और आॅस्ट्रालायड है। ‘प्रोटो-आॅस्ट्रोलायड’, जो लगता है नेग्रीटोज़ के बाद आये हैं, और यह भी, कि वो भी पश्चिम से आये हैं, ने भारत की जनसंख्या को आध्ाारभूत तत्त्वों से सज्जित किया है। यहाँ पर, जैसा कि दिखता है, इस नस्ल के विस्थापन की कई पंक्तियाँ पश्चिम से लेकर पूर्व तक फैली हैं हिन्दुस्तान में और प्रोटो-आॅस्ट्रोलायड नस्ल भीतर और बाहर से दूसरे लोगों से मिश्रण होने के कारण संशोध्ाित होती रही है, ख़ासतौर पर नेग्रीटोज़ मोंगोलाइट्स; और परिणाम के रूप में, हमारे पास, ऐसा लगता है, कोल या मुण्डा भारत में हैं।’14
इसके बाद भूमध्यसागरीय जत्था भारत में द्रविड़ की तरह पहचाना जाता है, जिन्होंनें सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता के विकास में मुख्य भूमिका निभायी है और बाद में आक्रमणकारियों के नये समूह के द्वारा दक्षिण की तरफ भगा दिये गये। यहाँ यह स्पष्ट कर देना होगा कि हमारे उद्देश्य के लिए कि यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इण्डो-आर्यन, देशज लोग हैं या नहीं। महत्त्वपूर्ण यह है कि विभिé जनजातीय समूह के बीच सम्बन्ध्ा जो प्रकारान्तर से पनपे, जिसके कारण श्रेणीबद्ध व्यवस्था एक तरफ पैदा हुई और दूसरी तरफ उसकी चैहद्दी से छूट गये लोग हैं।
आज के नृशास्त्री और सामाजिक मानव विज्ञानी बड़े तौर पर मध्यप्रदेश की जनजातियों को दो मुख्यध्ााराओं में भाषायी आध्ाार पर बाँटते हैं, कुछ समूहों को छोड़कर जिनके बारे में कुछ सन्देह और मतभेद हैंः मुंदेरियन या कोलारियन समूह, जो इण्डो-आॅस्ट्रिक या आॅस्ट्रो-एशियाटिक ध्ाारा और द्रविडि़यन समूह को अपने में शामिल करते हैं। रसेल हीरालाल के मुताबिक मुंदेरियन या कोलारियन की प्रमुख जनजातियाँ इस तरह हैं ः-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सम्भवतःः भार, कोली, भील, चेरो।
और द्रविडि़यन हैंः
गौंड, उराँव या कुरूख खोंड, कोलम, पारजा, कमार।
आदिवासी जातियाँः भतरा, हलबा, ढोबा।
सन्देहास्पदः कवर, खँवर।15
इस सूची में कुछ उप समुदायों को शामिल नहीं किया गया है, जिन तक हम लोग पहुँचे हैं, वे हैं- झारा, गोंड जाति से सम्बद्ध और इसलिए द्रविडि़यन समूह। नगेसिया, मुण्डा की एक प्रशाखा, इसलिए कोलारियन समूह से सम्बद्ध, रजवार भुईंया की एक प्रशाखा, कोलारियन समूह। अगरिया गोंड प्रशाखा, द्रविडि़यन समूह, पण्डो, जो कि 1961 की जनगणना रिपोर्ट में द्रविडि़यन समूह से सम्बद्ध थे, बाद में, भूमिया और भुनियास से सम्बद्ध हुए जो कोलारियन समूह हैं। चिरवा कवर जाति का एक उपसमूह, द्रविडि़यन समूह से सम्बद्ध (?), मलार और बदि दोनों गोंड प्रशाखा उपसमूह के इसलिए द्रविडि़यन शाखा के, और मूडि़या, माडि़या और अबूझमाडि़या, ये तीनों गोंड प्रजाति से सम्बद्ध हैं, इसलिए द्रविडि़यन समूह के हैं। हमने बहुत सी अनुसूचित जातियों को जैसे कि लोहार, कुम्हार, अहीर, बरहेस, खरगवंशी, सतनामी, तुरी, पंका, घसिया और भम्भी लोगों की आदिवासी समुदायों के साथ स्थानीय निकटता और सम्बन्ध्ा के कारण शामिल किया है।
आदिवासी कला तक पहुँचने की समस्याएँ बहुत है और गहरी हैं। अवमानना सूचक अनुगूँजों, जो ‘ट्राईबल’ पारिभाषिक शब्द जगाता है जब उसे कुछ समुदायों और लोगों पर लागू किया जाता है के अलावा यह भी प्रतीत होता है कि उनकी कला को ‘अभिलेखागारिक’ और ‘आदिम’ कहकर खारिज किया जाता है। वास्तव में आदिम शब्द अक्सर उन लोगों की कला के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है, जो तकनीकी विकास के किसी स्तर पर ‘जकड़े’ हुए हैं, उन ‘उéत’ तकनीकी उपलब्ध्ाियों के साथ जो लोग हैं उनके बरक्स पिछड़े माने जाते हैं। यद्यपि इस तरह के नियम कलात्मक उपलब्ध्ाियों पर नहीं लागू किये जाते रहे हैं, जो उन सभी महान सभ्यताओं में या चर्च (मन्दिर) के इर्द-गिर्द विकसित हुई हैं या सामन्ती समय के दरबारों में। समूहों द्वारा की जा रही ऐसी कला को जो किसी से सम्बद्ध नहीं है या जिसे मुख्य ध्ाारा में शामिल नहीं किया गया है। समुदाय जो साम्राज्यवादी शक्तियोें में विकसित नहीं हुए हैं और जो सीमाबद्ध रहे, समानान्तर विकास के अर्थ में भी, कुछ अपवाद को छोड़कर, अध्ािकांशतः बिना किसी गम्भीर विचार के योग्य होने के और अध्ािक से अध्ािक अजूबे की तरह ही रहे या किसी पुरातत्त्वेत्ता की रुचि के तत्त्वों की तरह, इतिहासज्ञ और नृशास्त्रीय के लिए प्रकृति के अध्ययन के लिए, इन समुदायों विकासवादी स्तर और सामाजिक संगठनात्मक उपलब्ध्ाियों के अध्ययन के लिए।
इस शताब्दी के पहले दशक में ही यह हुआ कि, पश्चिम में बसे कलाकारों ने ‘आदिम कला’ में रुचि लेना शुरू किया और सम्बन्ध्ा बनाया और उनके साथ कुछ इतिहासवेत्ता और नृशास्त्री ने आश्वस्त करती वैध्ाता के विचार का प्रतिपादन किया। अच्छी तरह समझने की आदत और सभ्यताओं और उनकी कलात्मक उपलब्ध्ाियों का ऊध्र्वगामी मानदण्ड से मूल्यांकन करने में तकनीकी समय डटे रहता है। नृशास्त्रियों को अपनी संस्कृति से इतर अन्य संस्कृति के अध्ययन के लिए और जो उन्हें ‘बने-बनाये’ प्रयोंगों16 की तरह उपलब्ध्ा होने वाले सभी मुक्त, विषयपरक और व्यवहारिक प्रस्तावों के निष्कर्ष हमेशा बिना इस संस्कृति से सम्बद्ध होते हुए या तो सैद्धान्तिक उदाहरण की प्रतिष्ठा कभी न ठीक की जा सकने वाली निराशा लिए होते हैं।
वस्तुतः जिस दुनिया में हम रहते हैं, वह हमारी बनायी हुई नहीं है, बल्कि उसमें हम पैदा हुए हैं, उन ताकतों और तत्त्वों को हम माफ करते ही दिखते हैं, जिसने इस दुनिया का यह रूप ध्ारा है और जिसका हम सम्मान करते हैं, बहुत बाद में समझ में आने वाली बात की तरह, जिसे हम न हटाये जाने वाला हिस्टाॅरिकल समय भी कह सकते हैं। इस तरह का पापमोचन इन समुदायों के प्रति पूरे आदर के साथ जो हमारे इर्दगिर्द जकड़ी हुई तकनालाॅजी के साथ रह रहे हैं, ध्ाीरज के साथ नहीं किया जा सकता है।
हम किसी भी मानसिक करतब के उपकरणों से अपने आदिवासी समुदायों को भूतकाल में नहीं ढकेल सकते। उनकी कलात्मक अभिव्यक्तियाँ मात्र अजूबे की तरह नहीं देखी जा सकतीं, उनके ‘आदिम चरित्र’ के कारण चीज़े सिफऱ् दिलचस्प नहीं हो जाती हैं। वे जि़न्दा लोगों की जि़न्दा अभिव्यक्तियाँ हैं और यदि हमें उनसे किसी तरह की घनिष्ठता बनानी हैं, तब हमें उन्हें सिफऱ् समकालीन अभिव्यक्ति की तरह ही विवेचित करना चाहिए।
सन्दर्भ सूचीः
1. प्रिमीटिव ट्राइब आॅफ़ मध्यप्रदेश बाय एन.डी. तिवारी, गवर्मेन्ट आॅफ़ इंडिया, मिनिस्ट्री आॅफ़ होम अफेयर्स, ट्राइबल डेवलपमेंट डिवीजन, नई दिल्ली, 1984.
2. ट्राइब्स एंड कास्ट्स आॅफ़ सेन्ट्रल प्राविन्सेज़ आॅफ़ इंडिया, आर.वी. रसेल एंड हीरालाल, काॅस्मो पब्लिकेशन्स, दिल्ली (प्रथम संस्करण 1916), पुनर्मुद्रित 1975.
3. द एबोरिजिनल ट्राइब्स आॅफ़ इंडिया, स्टीफन फुक्स, मैकमिलन प्रेस लिमिटेड, मद्रास, 1973.
4. ट्राइब, कास्ट एंड रिलीजन एडिटेड बाॅय रोमेश थापर, साउथ एशिया बुक्सत्र
5. ट्राइबल हेरिटेज आॅफ़ इंडिया, एडिटेड बाय एस.सी. दुबे, विकास पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, 1977.
6. ट्राइबल वल्र्ड आॅफ़ वेरियर एल्विन, एन आॅटोबायोग्राफ़ी, आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, आमेन हाउस, लंदन, 1964.
7. ट्राइब्स एंड कास्ट्स आॅफ़ सेन्ट्रल प्राॅविन्सेज आॅफ़ इंडिया, आर.वी. रसेल एंड हीरालाल, भाग-1, काॅस्मो पब्लिकेशन्स, दिल्ली, पुनर्मुद्रित 1975.
8. मुझे जो कहा गया था वह कहानी सुनाता हूँ, जब एक ईसाई ध्ार्म-प्रचारक ने पत्थर की आदिवासी देवमूर्ति तथा रबर या मोम से बनी क्राइस्ट की मूर्ति को पानी से भरी बाल्टी में डाल दिया और कहा, ‘‘देखो, तुम्हारा ईश्वर तो डूब गया जबकि क्राइस्ट अभी भी पानी में तैर रहे हैं।’’
ध्ार्मान्तरण करने का यह एक पक्का तरीका है।
9. द वैदिक एज (चैप्टर-10ः द आर्यन प्राब्लम बाइ बी.के. घोष), डाॅ. के.एम. मुंशी के निर्देशन में तैयार, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, 1971.
10. ध्ार्मशास्त्र का इतिहास, डाॅ. पी.वी. काने, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ, 1980.
11. द अर्दन ड्रम, श्रीमती पुपुल जयकर, नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली.
12. ध्ार्मशास्त्र का इतिहास, डाॅ. पी.वी. काने, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ, 1980.
13. एन्थ्रोपोलाॅजी, क्रोबर, हारकोर्ट, ब्रेस एंड कम्पनी, न्यूयाॅर्क, परिवधर््ाित संस्करण, 1948.
14. द वैदिक एज (चैप्टर-8ः रेस मूवमेंट एंड प्री हिस्टाॅरिक कल्चर - एस.के. चटर्जी), डाॅ. के.एम. मुंशी के निर्देशन में तैयार, भारतीय विद्या भवन, बम्बई.
15. ट्राइब्स एंड कास्ट्स आॅफ़ सेन्ट्रल प्राॅविन्सेज आॅफ़ इंडिया, आर.वी. रसेल एंड हीरालाल, भाग-1, काॅस्मो पब्लिकेशन्स, दिल्ली.
16. लेवि-स्ट्राॅस-सन्दर्भ डीन मैककेलन द्वारा इन इथ्नोसिमियाटिक्स, सिमियाटिक आॅफ़ कल्चर, माॅटन पब्लिशर्स, 1979.
जनगणना सूचीः 1971

 

 

 

 

 

 

 

 

 

समयः इतिहास का नाका
जिसे हम आदिवासी कला कह रहे हैं, ज़रूरी है कि पहले हम इस आदिवासी पद की परिभाषा करें। हालाँकि कोई भी कोशिश इस परिभाषा के लिए, जैसा कि हमने देखा है, हमें तत्काल ही उन सब अनुशासनों के बीच ले जाती है, जो ऐसा लगता है कि इस हिस्टाॅरिकल समय की न भरी जा सकने वाली अजेय दूरी के अकेले उपकरण हैं जिनसे हम वे पुल बना सकते हैं, जो कि शायद हमें अपनेे ही जाल में फँसा लें। जैसा भी हो, जब तक हम विश्लेषण के औज़ारों और उसके विषय के बीच भ्रम में न पड़ें और जब तक हम योग्य हैं जे़नो के तीर की तरह, जो गति में है और वहीं रुका हुआ है; उस इलेक्ट्राॅन की तरह जो एक दिशा में जा रहा है और पाॅजीट्राॅन दूसरी दिशा में,1 तब हम शायद यथार्थ के अनुभव के कारण हिस्टाॅरिकल समझ के शिकार होने से बच जाएँ। हम मनुष्य की तरह, भूल-भुलैया में घुसने के लिए रोशनी को अनुपयुक्त ठहराते हैं, फिर से रोशनी को देखने के लिए। भूल-भुलैया, हालाँकि बहुत ही जटिल है, उसे खोलने वाले ध्ाागे को पकड़े रहते हैं जब तक यदि हम थिसियस की तरह नहीं जानते कि वहाँ राक्षस बैठा है- हिस्टाॅरिकल समय का राक्षस।2 भूल-भुलैया के मध्य में मारे जाने योग्य, हम शायद फिर से प्रकट नहीं हो सकेंगे और इस तरह अभिमन्यु3 के भाग्य को प्राप्त होंगे।
ऐसा लगता है कि हमारी सीध्ाी समझ और आशंका के बीच कोई नहीं है, जिसे सामान्य तौर पर आदिवासी कला की तरह परिभाषित किया जाता है। यद्यपि हम यह पूरी तरह नहीं समझते हैं कि वह क्या सम्प्रेषित करता है, फिर भी हम उसके चाक्षुष प्रभाव को ग्रहण कर सकते हैं, और यह शायद हमें ‘ताकतवर’, ’अनगढ़’ या ‘सुन्दर’ दिखायी दे सकता है, हमारे पूर्वाग्रह और हमारे झुकाव के अनुसार, और साथ ही हमारे काम की प्रकृति के ऊपर भी निर्भर करता है। जैसे कि, कला में अभिप्राय, सभी रूपात्मक अभिप्रायों के ऊपर, संकेत अपने में अभिव्यक्त है और इसलिए सम्भवतः सार्वजनीन है, अतः उदाहरणार्थ, कला में देवी की शक्ति उसके जादुई प्रभाव में नहीं है बल्कि उसके चाक्षुष प्रस्तुतिकरण में है। कला में ‘वस्तु जैसी है’ की ध्ाारणा, इसलिए ऐन्द्रिक यथार्थ है। यह ऐन्द्रिक यथार्थ है, क्योंकि हम अनुभव करते हैं अपनी इन्द्रियों के द्वारा एक अलग पहचान की तरह उसके आसपास मौजूद अन्य इन्द्रियग्राहî विषयों के बीच दूसरे काम, प्रकृति में मौजूद दूसरी वस्तुएँ, जैसे कि रंग, रूप और आयतन, आदि-आदि, जो भी कुछ है वह चाहे उसे प्रस्तुत करता हो या न करता हो। हम उसे ‘समझें’ या न समझें, किन्तु हम, बिना प्रश्न के, इसे जानते हैं। यह अलगायी गयी इन्द्रिय ग्राहî निरन्तरता की असाध्ाारण चैखट नहीं है, किन्तु जैसे कि गेटे की वानस्पतिक विश्व की ध्ाारणा है, ख़ासतौर पर और अपने में, निरन्तरता का पूरा प्रस्तुतिकरण है। यह सह अस्तित्व को ज़्यादा रेखांकित नहीं करता है। एक उद्गम जो ख़ास पहचान चिह्नों के साथ हैं, जिसे महसूस करने के लिए तर्कसंगत व्याख्याओं की ज़रूरत नहीं है।
फिर भी, जैसे बुआस कहते हैंः हमने देखा है कि आदिम लोगों की कला में दो तत्त्व प्रमुख हैं, एक शुद्ध रूपाकार, उल्लास रूप पर आध्ाारित है, और दूसरा जिसमें रूप अर्थों से भर दिया गया है। दूसरे प्रकार में अभिप्राय कलात्मक मूल्यों को बढ़ा देता है। कलात्मक प्रक्रिया या कला-वस्तु के सहयोगी सम्बन्ध्ाों के कारण। चूँकि यह रूपाकार अर्थगर्भित हैं, इसलिए इन्हें नुमांइदा होना चाहिए। ज़रूरी नहीं है कि वास्तविक वस्तुओं को बतला रहे हों, किन्तु अक्सर कुछ ज़्यादा या कम, ये अमूर्त विचार हैं।’’4
एक कलाकृति को यदि सन्देश देने के साध्ान की तरह व्यवहार में लाया जाये, विचारों के या अनुभव के, खुद से उत्पé हो रहे के अलावा, तब वह रुक जाती है और वस्तुतः वह एक कलाकृति होना भी बंद हो जाती है। न तो वह अपारदर्शी हो सकती है, न ही एक साफ़ आईनाः वह सिर्फ़ चेहराविहीन खिड़की हो सकती है जिसमें हम झाँकते हैं - हालाँकि एक खिड़की इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जा सकने वाले या बोध्ागम्य आकृतियों या अनुभव को ही संहिताबद्ध करती है। अपने में एक अनुभव होने के बजाय और अपना प्रतीक होने के बदले वह अपने अलावा अनुभव और आकृतियों को बतलाती है। वह खुद होना बंद हो जाती है और एक अर्थ बन जाती है - सन्देश का एक अर्थ। सन्देश के सारे अर्थ अपना अर्थ खो बैठते हैं जब वह सन्देश देना बंद कर देते हैं। उनका, अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, उदाहरण के लिए, प्रकृति में मौजूद अद्भुत घटनाएँ। सूर्य, हमें जीवन का सन्देश नहीं देता है। वह हमें जीवन देता है। यह कहना कि सूर्य हमें जीवन देता है, यह उसकी कीर्ति में न कुछ जोड़ता है न घटाता है। कला का चेहरा कुछ-कुछ सूर्य की तरह है। वह सन्देश नहीं देता, सीख देता है। यहाँ पर शायद बोआस गलत हैं। जब वह कला में तथाकथित शुद्ध रूपाकार और दूसरे ‘अर्थ’ से भरे हुए रूपाकार में फ़कऱ् की बात करते है। जबकि ‘अर्थ’ कई दूसरे साध्ानों से बतलाया जा सकता है। शुद्ध रूपाकार नहीं कर सकते हैं। जबकि कला में शुद्ध रूपाकार ही ‘अर्थ’ हैं। वस्तुतः कला में वह अपने अलावा किसी और को सम्प्रेषित नहीं करता है, अपना परित्याग कर देता है। उसके जो भी तात्त्विक संघटक हों, जो एक कलाकृति का निर्माण करते हैं, कलाकृति के प्रकट होने की प्रक्रिया में वे अपना अर्थ छोड़ देते हैं और कलाकृति खुद अपने संघटकों से अलग बन जाती है। एक साधारण उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा पानी के पानी होने को हम कभी भी भ्2व् की मात्रात्मक परिभाषा से नहीं जान सकेंगे।
वस्तुतः इस तरह की कलाकृतियाँ जो अर्थ के अलावा जो दूसरे अभिप्रायों का समावेश करती हैं और शुद्ध रूपाकारों के अलावा किन्हीं और चीज़ों को दर्शाती हैं (जब तक कि दूसरे का औचित्य पहले के सन्दर्भ में आकस्मिक न हो)। उनको समझने की कुंजियाँ संस्कृति और उस वातावरण, जिसमें उनको रचा गया है, में पायी जाती हैं। यह कहा जाता है कि गुफा में रहने वालों ने शिकार के रेखांकन जादुई उद्देश्य से किये थेः एक सफल शिकार का संकेत रेखांकन देता है, और रेखांकन बदले में एक सफल शिकार का पूर्वाभ्यास है। यह, हालाँकि उन रेखांकनों से हमारे निकाले हुए अर्थ हें हमने उनके शिकार से इसकी व्याख्या जोड़ दी। शिकार हो जाने का अर्थ और जादुई हो जाने का कार्यरूप। किन्तु रेखांकन के जादू का क्या हुआ, रेखांकन के अपने होने में?
कला के इस अलौकिक अधिकार से पहला और सर्वश्रेष्ठ सामना होने पर पहुँचने पर इस तरह का सामना कारण के साध्ानों से चरितार्थ नहीं हो सकता। कारण का औजार ही नष्ट किया जाना होगा। ‘हमारी सभ्यता के इर्द-गिर्द ख्ंिाचा परकोटा महान दीवार या मैग्नाॅट लाइन संस्कृति के बराबर ही है।’5 यह जहर से जहर के प्रभाव को खत्म करने की तरह हैं।
यदि इस निबन्ध्ा के क्रम में हम नृवंश विद्या सम्बन्ध्ाी या मनुष्य विध्ाान सम्बन्ध्ाी तरीकों की शरण लेते हैं या हम पुरातत्त्व विज्ञान और इतिहास का सहारा लेते हैं, हमारे लक्ष्य और अभिप्राय की नज़रों से यह कभी नहीं भटकना चाहिए कि - कला के दैवीय क्रियाकलापों को ही महत्त्व देना है, न कि उसे हटाना या न ही उसका सहायक होना है। क्लाॅद लेवि-स्ट्रास का चमकता हुआ योगदान ने यह सम्भव किया कि समुदायों की कला में अन्तर्निहित संरचनात्मक प्रेरित करने वाले अभिप्राय को पढ़ पाना सम्भव हुआ।6 जो प्रश्न हमें कष्ट देता हैः क्या सामाजिक संरचनात्मकता उस ज्ञान को उपलब्ध्ा कराते हैं जो हमें प्रत्याशा और चाक्षुकता के उस छोर तक ले जाती है जहाँ हम क्वाक्यिूटल मुखौटे को देख चमत्कृत होते हैं? हमारा उद्देश्य यहाँ पर कला और समझ के विशाल भण्डार गृहों से प्रतियोगिता करना नहीं है, किन्तु एक कोशिश है दिमाग को थोड़ा-सा खोल लेने की, जिससे कि चमत्कार की दुनिया की अन्तहीनता के साथ हम साहचर्य स्थापित कर सकें। हम भूल-भुलैया में सिफऱ् इस आशा के साथ घुसे थे कि प्रकाश में प्रकट होंगे। अब फिर हम लिंगो को सुनते हैं, पौराणिक गोंड नायक, जो हमें भूल-भुलैया के पीछे से पुकार रहा है।
सन्दर्भ सूचीः
1. मिस्टीसिज़्म एंड द न्यू फिजिक्स, माइकल टलबोट, रूटलेज एंड केगन पाॅल, 1981.
2. बैल के सिर तथा आदमी के शरीर वाला, ग्रीक पुराणों में वर्णित दैत्य जिसे प्रति नौंवे वर्ष सात युवकों व सात युवतियों की बलि चढ़ाई जाती थी।
3. महाभारत में वर्णित चरित्र जिसने गर्भ में ही चक्रव्यूह में घुसने की विध्ाि सुनकर सीख ली थी, परन्तु बाहर निकलने की विध्ाि नहीं जान पाया।
4. प्रिमीटिव आर्ट, फ्रेंज बाउस, डोवर पब्लिकेशन्स इन, न्यूयाॅर्क.
5. सेमियाॅटिक आॅफ़ कल्चर (इथ्नोसेमियाॅटिक्स - डीन मैककेनल) सम्पादित - इरेन पोर्टिस विनर - जाॅ उमीकर सेबाॅक.
6. द वे आॅफ़ मास्क्स, क्लाॅड लेवि-स्ट्राॅस, जोनाथन केप, लंदन, 1983.

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