मेघ जैसा मनुष्य शंख घोष की कुछ कविताएँ बांग्ला से अनुवादः प्रयाग शुक्ल
06-Apr-2017 09:01 PM 2782

जाम
भालू के पेट में भालू के तलुवे
स्थिर है काल जो असीम।
लटकाये गला है जि़राफ़
उछल-उछल पड़ती ज़ेब्रा क्रासिंग
हंस वे कई हज़ार
चाहते झपटना पंख दूसरों के
बालक भिखारी भरी दोपहर
डुगडुगी बजाता और गाता हुआ गाना।
रह-रहकर हिलता है माथा
चाहे हो तरुण चाहे पुराना।
कण्डक्टर कहता पुकार कर
पीछे से आगे हो जाना।





स्वप्न
अः, पृथिवी। अभी टूटी नहीं है मेरी नींद।
स्वप्न के भीतर है तुमुल पहाड़
परतों में खुली जा रही हैं उसकी पपडि़याँ
खुली जा रही हें हरी पपडि़याँ, भीतर और भीतर,
खोल रही हैं अपने को,
      बीच में उनके उग रहे हैं धान खेत
जब आएगी लक्ष्मी
लक्ष्मी जब आएगी
तब हाथों में लिये कृपाण, पाइप गन,
कौन हैं वे जो चले आ रहे हैं लूटने फसल
अः पृथिवी, अभी टूटी नहीं है मेरी नींद।

अंजलि
घर जाय प्रिय जाय परिचित जाय
सबको मिलाकर आय वह मुहूर्त
जब तुम हो जाते अकेले
खड़े हो उस मुहूर्त-टीले पर और
जल है सब ओर, जल, जल धारा
प्लावन में घरहीन, पथहीन प्रियहीन
परिचितहीन
तुम ही अकेले
शून्य तले महाकाल के
दो छोटे हाथों से पकड़े हुए धूल भरा माथा
जानते नहीं कब दोगे किसको दोगे
जाकर दोगे कब कितनी दूर।

मेघ
ले आया मेघ घर वह हमारे लिए जाना-पहचाना।
आज इस काली भोर बेला में पहुँच सकता हूँ
उस देश ढेलकर दिनों का पहाड़। जाने कब
भाग कर कौन किसको पकड़ ले, किसने जाना।
एक विदा से दूसरी विदा के बीच
है सरलरेखा-सा वह पथ
और उसके आखिरी छोर पर खड़ा है दो
सौ वर्षों का बरगद पुराना।
कहता है वह इतना भय क्यों, आओ
इस जगह बैठो आकर-
आज मेघ से जाना प्रथम साहस का आना।

बुद्धू
कोई हो जाये यदि बुद्धू अकस्मात, यह तो
वह जान नहीं पाएगा खुद से। जान यदि पाता यह
फिर तो वह कहलाता बुद्धिमान ही।
तो फिर तुम बुद्धू नहीं हो यह तुमने
कैसे है लिया जाना?

खुलते ही जाते पथ तोरण
बाँचेगा चिट्ठी यह कौन कहाँ यह तो न जानता
लेकिन यह लिखनी ज़रूर है
लिखनी है, समय हुआ लिखने का,
उठ पड़ना होगा अब
छोड़ना नहीं बाकी कोई भी कामकाज
झुककर जल छाया में मुख सबका देखना
मुख पर सबके पड़ती अपनी भी छाया
कितने जन कितने दिन घिरे हुए
बँधा हुआ अविरल विश्वास
आया सब इतना कैसे पास? जमा हुआ
अब सब लिख डालना
लिखना है मैं भी हूँ उत्सुक, मैं तुमसे मिलने को,
मिलाने को हाथ। जिसको यह लिखना है सम्भव है
वह भी हो चलता चला आता इतने दिनों से
खुलते ही जाते पथ तोरण सब स्वप्न में
सजे हुए खुलते ही जाते वे!

आकण्ठ भिक्षुक
आकण्ठ भिक्षुक, कहो कुछ कानों में
गृहस्थ के, उसकी स्थिरता सब
भंग करो, कार्निश से उसकी
झरा दो प्रपात,
बंशी बजाओ भेद तन मन उसका
गुनगुन नचाओ उसे पथ-पथ पर भीड़ जहाँ
देखो तब भी कितनी बची हुई
उसके शरीर से लगी हुई
मोह-सिक्त मूर्खता!

आलस्य
उस सबकी चिन्ता करो नहीं, उस सबका तो कोई अन्त नहीं
छोड़ो, आओ देखो बैठो यहाँ
देखो यह, किसी एक छोटी-सी चीज़ को
और बड़ा करते ही
लगने क्यों लगता है अशालीन
वहाँ दूर भय से वे चले गये दौड़ते माटी में
छाती में तुम्हारी भी होता क्यों कम्पन
आँखों में छाया आलस्य का भार यह
फिर भी क्यों होती यह चाहना
ठीक ठाक सब कुछ है ना!

मेघ जैसा मनुष्य
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
लगता है छू दें उसे तो झर पड़ेगा जल
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
लगता है जा बैठें पास में उसके तो छाया उतर आएगी
वह देगा या लेगा? आश्रय है वह एक, या चाहता आश्रय?
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
सम्भव है जाऊँ यदि पास में उसके किसी दिन तो
मैं भी बन जाऊँ एक मेघ।

भय
मोड़ पर सी आई टी रोड के हाथ फैला
सो रही है मेरी बेटी फुटपाथ पर
छाती के पास है कटोरा एनामेल का।
हुई है दिनभर आज वर्षा उसकी भिक्षा के ऊपर
समझ नहीं पाया इसीलिए कौन-सा था उसका रोना
और कौन-सा वर्षा-स्वर।
उस दिन खो गयी थी वह जब
गलियों के चक्र में
रो उठी थी
जैसे रो पड़ती हैं लड़कियाँ बेसहारा।
कहा था तब भय कैसा
मैं तो पीछे ही था तेरे।
पर होता है भय मुझे भी
जब वह जाती है सो
और फोड़कर मेघ को
उसके होंठों के कोने पर आ रहता है
एक टुकड़ा प्रकाश का।

शिल्पी
पड़ता आलोक मध्यरात्रि का मुख पर
रहता आधा अपने में ही घिरा।
तुम हो दिशा हारा अब भी जानते नहीं
तारा कौन कहाँ मरा बचा कहाँ कौन।
वामन सम चलते ही कभी-कभी
कभी-कभी अग्रदूत बनकर वसन्त के
कभी-कभी लगते हो अपने ही बहुत बड़े प्रेत से।
रंग और ध्वनि की निरंजन वह श्वास
उड़ जाती कुछ तो कुछ रह जाती पड़ी यहीं
निज को हो जानते? जानते हो कितना?
तुम हो बस चित्र वही मीडिया
          बना देता जितना।

सिल्चर
किसने कहा यह मेरा नहीं? नहीं यह तुम्हारा?
यहाँ पाँव रखते ही छिन जाती छिन्नता।
तार मिल जाते सब मेरे तुम्हारे मुहूर्त में।
उठतीं सिहरतीं सब लहरें आनन्द की सिर से ले पाँव तक।
रहता है बहता स्रोत बराक नदी का
पर्वती छाया में जल भीगी आँखों में तुम्हारी
सर्पिल लावण्य वह जमा हुआ
बीच पत्थरों के,
नाचता जैसे कि संयुक्ताक्षर शक्ति के शब्दों में।
छाती में उग आता परिचित पुराना पेड़
विस्मय-सी शाखाएँ रहतीं झूल
इस देश उस देश
समय गढ़ देता शिल्प प्रकृतिमय
हो उठती शिल्पमय प्रकृति!

निग्रो बन्धु को चिट्ठी
रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा, शब्द मेरा भी।
रिचर्ड रिचर्ड।
रिचर्ड कौन? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा शब्द नहीं।
रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा, स्वप्न मेरा भी।
रिचर्ड, रिचर्ड।
कौन रिचर्ड? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा स्वप्न नहीं।
रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा दुःख मेरा भी।
रिचर्ड रिचर्ड।
रिचर्ड कौन? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा दुःख नहीं।

संगिनी
हाथ पर रखना हाथ सहज नहीं
सारा जीवन देना साथ सहज नहीं
बात लगती यह सहज, जानता न लेकिन कौन
सहज बात होती उतनी सहज नहीं।
पाँवों के भीतर चक्कर मेरे, चक्कर है
उनके नीचे भी, कैसा नशा है यह, इसके तो सभी ऋणी।
झिलमिल-सी दुपहर में भी रहती ही है साथ
गंगा तीर वाली चंडालिनी।
वही सनातन अभ्रुहीना, आसहीना तुम ही तो हो
संगिनी मेरे हर समय की, है ना?
तुम मुझको सुख दोगी यह तो सहज नहीं
तुम मुझको दुःख दोगी यह भी सहज नहीं।

घर - 2
जो चाहे आना    उसको लाना
जो चाहे आना    उसको लाना
जो चाहे आना    उसको लाना
उसको बुलाना
घर के ही आसपास कितने तो लोग
जो जाये दूर बहुत दूर बहुत दूर
जाये घूमे-फिरे
उसको लाना घर लाना घर लाना
घर के ही पास में है घर के ही लोग
फिर क्यों जाते-जाते उल्टी दिशा में
उल्टी दिशा में
चाहो तुम दल-बाँध घर ही जलाना?

कबूतर
उस कबूतर ने पास आ मेरी ही कार्निश के
दिखाया मुझे निज को। इस तरह देखा था क्या कभी?
उसकी कोमलता को जानता। दुपहर को दूर चली जाती
स्वर ध्वनि उसकी पारकर पहाड़ देशकाल
जानी है।
वे सब नहीं हैं सुख रेखाएँ
छाती में उसकी श्वेत, कितने ही नख-क्षत
देख लिये मैंने आज,
जैसे ही उठाये हुए कितने ही मेघ भार
छोटी उस छाती में-
चाहता चुुम्बन वहाँ, मेघों को फोड़कर चाहता
होना वृष्टि, खोलकर डैनों को चाहता झर जाना
मर जाना अन्तिम बार गेरूआ माटी में -
छुऊँगा नहीं उस कबूतर को और कभी आगामी शीत में।

ग्रह
इस ग्रह के कोई नहीं हो तुम लगता यह रहता।
मेघों में आलोक। पर्वत की गोद में
हाथों में लिये हुए बैठे हो हरी-हरी रेखाएँ
चाहूँ मैं मुझको ही घेरकर तुम्हारा भी
छाया पथ जाग उठे।
आँखों में सुश्रुवा का भाव जो तुम्हारी
वह आकर समा जाये मेरे शरीर में
बूँद एक बनकर।
फिर तुम बचे कहाँ!
तुम हो बस माटी में पत्थर में
घास के ऊपर सिहरता वृष्टि जल
इस ग्रह के कोई नहीं हो तुम
फिर भी यह ग्रह है तुम्हारा।

अब भी मैं वैसी वह
अब भी हैं वे कीर्तन? अब भी वह नाम।
है प्रवाह वैसा ही? अब भी वह राह?
नहीं, नहीं ज्यों की त्यों रहने की थी भी न बात।
पार किये पथ कितने, डैनों को खोल-मोड़,
एक और रूप लिये गाती वह जलवती अब भी तो।
तुमको है देखती? रखती क्या तुम्हें याद?
सोचा यह सब कहाँ, इस दुपहर आया जब
आज यहाँ,
मन में रखकर अपने इतना विश्वास
उठती यह देह जाग, आता हूँ
जब उसके पास।

संध्या नदी जल
संध्या नदी जल! छूते हैं दोनों हाथ
स्रोत को तुम्हारे, साक्षी हो।
तर्पण के ऐसे दिन पार कर कितने ही मैदान
आया हूँ पास मैं बैठा हूँ दुःखों के किनारे तुम्हारे
इस भोर बेला में।
हैं वे भी बनकर यवनिका एक
यहीं कहीं जो अब रहे नहीं,
उनकी भी श्वासों को अंजलि बनाकर
मैं बैठा हूँ सोचता सम्बल बस मेरा
है स्थिर हो रहना। सम्बल हैं लता-फूल
अविकल, पथ को घेरे,
संध्या नदी नाम मेरी नदी का है,
तुम हो उसी का तो जल!
काव्य तत्व
कही भी कल क्या यह बात?
सम्भव है। लेकिन नहीं मानता उसे आज।
कल जो था मैं, वहीं हूँ मैं आज भी
इसका प्रमाण दो।
मनुष्य नहीं है शालिग्राम
कि रहेगा एक ही जैसा जीवन भर।
बीच-बीच में आना होगा पास।
बीच-बीच में भरेगा उड़ान मन।
कहा था कल पर्वत शिखर ही है मेरी पसन्द
सम्भव है मुझे आज चाहिए समुद्र ही।
दोनों में कोई विरोध तो है नहीं
मुट्ठी में भरता हूँ पूरा भुवन ही।
क्या होगा कल और आज का योग कर
करूँगा भी तो करूँगा वह बहुत बाद में।
अभी तो रहा हूँ मैं सोच यही -
फुर्ती यह आयी कैसे विषम ज्वर में!

मिथ्या
यह मुख निर्मल नहीं
मिथ्या लगी इस पर
अच्छा नहीं पास में
जाना तुम्हारे अभी
तुम तो स्नेही सुदक्षिणा
मेघमय धार उतर आती
आज भी आँखों के जल से तुम्हारे
रुद्ध देश भर जाता पुण्य से।
फिर भी मैं दूर चला जाता
यह मुख निर्मल नहीं,
बोधहीन पीला शरीर
जाता थम, तापीं1
तुमने दिया बहुत कुछ
मेरा तो समस्त ही
देना अभी बाकी।

1. तापींः तपस्विनी

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