सुनो, भाई साध्ाो राजेन्द्र मिश्र
08-Jun-2019 12:00 AM 3029

प्रत्येक क्षण दोनों है, प्रवाह और स्थायित्व। अब तक मानव ने क्षण के दो अलग स्वरूपों को एक में मिलाने की भूल की है। इतिहास के सभी दार्शनिकों ने जिन्होंने आने वाले स्वर्ण-युग के बारे में सोचा है, उन्होंने क्षण को प्रवाह या गति के रूप में लिया है और वे इसके स्थायी स्वरूप के बारे में भूले रहे हैं। सभी नीतिज्ञ जिन्होंने व्यक्ति के चरित्र और उच्च आदर्शों के बारे में उपदेश देने का प्रयत्न किया है, उन्होंने क्षण को केवल स्थायी मानकर सोचा है और उसे प्रवाह के रूप में देखने से चूके हैं। लेकिन क्षण प्रवाह और स्थायित्व दोनों है। जब वह प्रवाह है, वह इतिहास का क्षेत्र में है, जहाँ चालक शक्तियाँ खोजी जा सकती हैं। ...मनुष्य की नियति को केवल इतिहास के पृष्ठों में ही नहीं पढ़ना होगा, बल्कि हर क्षण के अशेष अमरत्व में भी जो बड़ी भव्यता के साथ ऐसी कहानियों में अंकित है, जो कभी घटित नहीं होतीं, पर वे शाश्वत और सत्य हैं। यदि मनुष्य को इतिहास में रहना सीखना है तो उसके बाहर रहने की भी उसे उतनी ही आवश्यकता है। (इतिहास चक्र, राममनोहर लोहिया, पृ. 87-88)
‘क्या मैं सफल आलोचक हो सकता हूँ? मेरी भाव-ग्राहिका शक्ति किस-किस प्रकार कार्य-प्रतिकार्य करती है, उसके व्यवहारों के प्रति कुछ-कुछ निश्चित जागरूकता तो मेरे भीतर हो सकती है। जीवन के विभिन्न अनुभव क्षेत्रों में सिद्धान्तों को लागू करने की भी क्षमता मैंने अपने भीतर देखी है। अपने सीमित ज्ञान के अनुसार मैं निष्पक्षता भी रख सकता हूँ, परन्तु यह सब होते हुए भी मुझे पूर्ण विश्वास नहीं होता कि मैं आलोचक हो सकता हूँ। तर्क-वितर्क का शास्त्रीय गद्य लिखने की योग्यता मैं अपने में नहीं पाता।’ (विजयदेव नारायण साहीः पूर्वग्रहः 65)
साही हिन्दी के कवि-आलोचक ही नहीं, अँग्रेज़ी साहित्य के प्राध्यापक और गम्भीर अध्येता थे। इसके अलावा राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में होने वाले समाजवादी आन्दोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी थी, लेकिन कविता उनकी राजनीति का विकल्प कभी नहीं बनी। जीवन की अशेष संलग्नता के साथ उनमें एक फकीरी तटस्थता भी थी जो उनके काव्य को ही नहीं, आलोचना को भी उदात्त स्वर देती है-
सुनो भाई साध्ाो
असली सवाल है
कि असली सवाल क्या है ?
(साखी, पृ. 91)
कबीर के लहजे में रची गयी साही की ये पंक्तियाँ उनकी आलोचना के स्वभाव का भी संकेत देती हैं। एक ऐसे समय में जब पराये प्रतिमानों और मुहावरों को अन्तिम सत्य के रूप में प्रस्तावित किया जाता है, साही भरपूर उद्विग्नता के साथ यह जानने का प्रयत्न कर रहे हैं कि असली सवाल क्या है ? स्मृति-भ्रंश को लगातार फैलाती औपनिवेशिक मानसिकता ने मनुष्य और उसकी रचना को पढ़ने के लिए इतिहास का जो पाठ बनाया है, उसके बरक्स साही प्रत्येक पद को उसके उस मूल स्रोत में जाकर पहचानने का प्रयत्न करते हैं, जहाँ से असली सवाल के जन्म की सम्भावना निर्मित होती है। वे परत-दर-परत उलझे हुए आवरणों को भेदते हुए उस केन्द्रीय लय को सुनना चाहते हैं जिसके बगैर न तो मनुष्य की कोई कल्पना की जा सकती है और न ही साहित्य की। ज़ाहिर है कि इस उद्यम में तरह-तरह के द्वन्द्व और तनाव हैं। अपनी दो आँखों से अपनी ही दो आँखों को देखना एक जटिल और कठिन व्यापार है ः
लकीर की समाप्ति पर
मूर्ति नहीं आदमी है
और ये पैरों के निशार हैं
जो उसके आगे बढ़ने के दौरान निर्मित हो गये हैं
वह मुड़ कर सोच रहा है
कि इन निशानों का अस्तित्व
उसके चलने के पहले था या नहीं
.............
आश्चर्य की बात यह नहीं है
कि इतना वह चला कैसे
आश्चर्य यह है
कि वह आज तक यह हल नहीं कर पाया
कि ये निशान उसे निर्मित करते हैं
या वह इन निशानों को निर्मित करता है।
(साखी, पृ. 15)
अपनी समूची आलोचना में साही निरन्तरता के साथ परिवर्तनशीलता को काल की दुहरी चेतना के रूप में विन्यस्त करते हैं। उन्होंने उस चिन्तन को प्रश्नांकित किया है जिसमें चिरन्तर प्रश्नों को चिरन्तर दृष्टि से और समसामयिक प्रश्नों को समसामयिक दृष्टि से देखने की प्रबल प्रवृत्ति रहती है। साही के शब्दों में ‘श्रेष्ठ और सार्थक चिन्तन का एक लक्षण यह भी होता है कि समसामयिक प्रश्नों पर उसकी चिरन्तर दृष्टि पड़ती है और चिरन्तन प्रश्नों पर सामयिक दृष्टि।’
(2)
साही जिस ‘लघुमानव’ का केन्द्र में रखकर छायावाद से लेकर अज्ञेय तक की कविता पर विचार करते हैं, उसका संकेत प्रसाद के लगभग 1939 के आसपास लिखे ‘यथार्थवाद और छायावाद’ नामक लेख में मिलता है। यह उनकी ‘काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध्ा’ पुस्तक में शामिल है। कवि के अनुसार ‘यथार्थवाद की विशेषताओं में प्रध्ाान है लघुता की ओर साहित्यिक दृष्टिपात।... जिसे लोग अकिंचन समझते थे, वही क्षुद्रता में महान दिखायी देने लगा। ...इसका मूल भाव है- वेदना।... वह महत्व और लघुत्व दोनों सीमान्तों के बीच की वस्तु है।... वेदना के आध्ाार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब उसे छायावाद के नाम अभिहित किया गया।’ साही ‘महत्व और लघुत्व’ जैसे पदों को अपनी बहस में एक नया विन्यास और विस्तार देते हैं।
साही के अनुसार छायावादी युग ‘विराट नाटकीयता’ का ऐसा युग है जिसमें ‘लघु’ और ‘महत्’, यथार्थ और आदर्श, ‘मारल विजन’ और ‘इमेजिनेटिव विजन’, सर्जनात्मक स्तर में एक साथ घुले-मिले हैं। प्रसाद जी ही क्यों, सारे छायावादियों की कोशिश इन प्रत्ययों के भेद को मिटाने की ही रही है। यह सारा व्यापार एक-दूसरे की ओर उन्मुख होने का ही व्यापार है। ‘यह उन्मुखता काल में भी है और कालातीत में भी।... प्रेमचन्द में यह, कालबद्ध रूपों में प्रगट होता है।’ ऊपर हमने समय की दूहरी चेतना का उल्लेख किया है, उसे साही छायावादी कवियों में भी देखते हैं। एक ओर ये कवि परिवर्तनवादी हैं तो दूसरी ओर उस तत्ववाद से जुड़े हैं, जो देशकालातीत अनन्त सत्व के प्रभामण्डल को व्यापक अर्थवत्ता प्रदान करता है।’
अखिल भारतीय साहित्यिक उन्मेष के सन्दर्भ में छायावादी युग को ‘सत्याग्रह युग’ भी कहा जा सकता है। इन समूचे कालखण्डों के मनोभावों को रचने-गढ़ने में महात्मा गाँध्ाी की उज्जवल उपस्थिति की केन्द्रीय भूमिका रही है। साही ने अँग्रेज़ी में लिखा, जो कवित्वपूर्ण और विस्तृत उद्धरण दिया है, उसे यहाँ प्रस्तुत न करते हुए केवल उस पर आलोचक की प्रतिक्रिया का उल्लेख करेंगे। इसका एक कारण यह भी है कि इससे साही की आलोचनात्मक प्रवृत्ति की पहचान भी सम्भव हो सके। न केवल यहाँ बल्कि समूची आलोचना में वे प्रायः बिम्बों और रूपकों का इस्तेमाल करते हैं। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि साही बिम्बों में सोच और रूपकों में बोल रहे हैंः
‘इन शब्दों की राजनीति पर नहीं, इन शब्दों में जो काव्य है, उस पर ध्यान केन्द्रित कीजिए और आपको निराला, प्रसाद, प्रेमचन्द- इन सबके लहू की ध्ाड़कन सुनायी पड़ेगी। जीवन और मृत्यु, क्रान्तिकारी ईश्वर, प्रलय-प्रवाह शान्त वातावरण में बार-बार आ सकने वाला तूफान, टूटते हुए पहाड़, विस्तृत आकाश विकराल प्रलय-मेघ, ध्ाीरे-ध्ाीरे चढ़ता पर्वतारोही, और छूटते हुए उल्कापिण्ड सरीखा मनुष्यः ये सारे चित्र तत्कालीन साहित्य में निरन्तर मँडराते रहते हैं।’
जिस प्रकार तत्ववाद (मेटाफिजिक्स) छायावादी कवियों में है उसी प्रकार गाँध्ाी जी में भी। ‘उनकी ‘स्वाध्ाीनता’ का एक आयाम इतिहास के बाहर देश-काल से भी रहे है।’ सत्याग्रह-युग की जिस विराट नाटकीयता का उल्लेख हमने पहले किया है, वह ‘प्रेमचन्द और प्रसाद के आसपास के गद्य को भी सम्पन्न करती चलती है।’ यह समूचा परिदृश्य बुनियादी तौर पर नैतिकता में शक्ति के विलयन से रचा-गढ़ा परिदृश्य है। ‘निराला, पन्त, महादेवी मुख्यतः इसी नैतिकता में शक्ति का विलयन करते हैं। सबसे अध्ािक शाक्त जयशंकर प्रसाद भी योरोपीय अर्थ में रोमांटिक नहीं हैं।’
छायावाद के आध्यात्मिक रूपक, दार्शनिक मुद्रा, नाटकीय संरचना और तत्सम बहुल भाषा को तोड़ने में बच्चन और भगवतीचरण वर्मा की महत्वपूर्ण भूमिका रही। छायावाद के ‘महामानव’ का स्थान ‘सहज आदमी’ ने लिया। साही के शब्दों में ‘अध्ािक से अध्ािक पाठकों को सामयिक कविता का चस्का लगाने का श्रेय जितना अकेले बच्चन को है, उतना किसी और को नहीं।... ‘पिछले अस्सी वर्षों में कविता का जितना व्यापक शौक तीसरे दशक ने पैदा किया, उतना शायद किसी अन्य में सम्भव नहीं हुआ। ‘चित्रलेखा’ आज भी अपराजित है।... मन के विभाजन का आविष्कार इस युग की विशेषता है।’
इस युग में प्रसाद और प्रेमचन्द भी लिख रहे थे। साही ने प्रसाद और बच्चन की कुछ समानताओं का भी उल्लेख किया हैः ‘जल और स्थल- दोनों कवियों की प्रतीकमाला में इतनी स्पष्ट मिलती है कि जब-जब मैंने इस पर सोचा है, मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ है। क्या ‘कामायनी’ की रचना के समय प्रसाद जी ने बच्चन का यह गीत सुना था ? क्या ये प्रतीक जातीय स्मृति से सम्बद्ध हैं ?’ यूरोप के रोमांटिक कवियों में जो अपराध्ा-भावना मिलती है, उस तरह की भावना इस दौर के कवियों में नहीं हैं।
इस युग के मनोभावों को व्यक्त करने के लिए साही ने जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा (1936) से एक उद्धरण दिया हैः ‘1931 के एक दिन पहले हुए गाँध्ाी-इरिविन समझौते की प्रतिक्रिया को दर्ज करते हुए नेहरू ने एलियट की दो पंक्तियाँ लिखी हैं ः
श्ज्ीपे पे जीम ूंल जीम ूवतसक मदके
छवज ूपजी ं इंदहए इनज ं ूीपउचमतश्
;श्रंूंींत स्ंस छमीतन रू ।नजवइपवहतंचीलद्ध
साही के अनुसार एलियट का पहला उल्लेख है। यहाँ वे प्रश्न पूछते हैं कि ‘हिन्दी मानस ने एलियट का क्या उपयोग किया ? इसका उत्तर आगे हम, अवान्तर लगते हुए भी, किंचित विस्तार के साथ देंगे।
साही ने अपने पहले काव्य-संकलन ‘मछलीघर’ के समर्पण में लिखा- ‘अज्ञेय’ को जिन्होंने हिन्दी कविता को एक बार फिर सम्भव बनाया, परिवर्तियों के आभार सहित।’ ज़ाहिर है कि नयी कविता के प्रमुख सूत्रध्ाार अज्ञेय हैं। उनके अलावा जिन कवियों के उद्धरण साही ने दिए (ध्यान से पढ़ें), उनके नाम इस प्रकार हैंः ध्ार्मवीर भारती, कुँवरनारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, लक्ष्मीकान्त वर्मा, शम्भुनाथ सिंह और गिरिध्ार गोपाल।
‘तार सप्तक’ के संग्रहीत कवियों की मूल समस्या है कि तीसरे दशक में फैली-फूली जो अनिवार्य अगम्भीरता थी, उसे तोड़कर किस तरह गम्भीर अर्थवत्ता को मुक्त किया जाए। साही के शब्दों में ‘इसका एक ही उपाय था, अन्तध्र्वनित सत्य और बाह्य सत्य के जिस अन्तर को महसूस करते हुए भी तीसरा दशक झुठलाता था, उसे पूर्णतः स्वीकार कर लिया जाय।’ अज्ञेय ने ‘समरसता के दर्शन’ को छोड़कर ‘निर्वैयक्तिक अनुभूति’ को अपनी रचना का आध्ाार बनाया। इस तरह उन्होंने दर्शन को अनुभूति में घुला देने की राह निकाली- ‘जो मैं हूँ, वह मैं नहीं हूँ, किन्तु जो मैं हूँ, वही मैं हो जाऊँ।’ इस तरह ‘त्रासजनित विवेक’ को ‘पावनताजनित विवेक’ में बदलने की शुरुआत हुई।
यहाँ हम यह देख सकते हैं कि बच्चन, जहाँ एक ओर प्रसाद से अलग हैं तो दूसरी ओर कई अर्थों में समान भी। ठीक उसी तरह अज्ञेय भी प्रसाद से असमान और समान दोनों हैं।
अज्ञेय की ‘चिन्ता’ (1941) में सगृहीत कविताएँ 1932-36 के बीच रची गई हैं। ‘कामायनी’ का पहला सर्ग ‘चिन्ता’ है। ‘दोनों ने आदिम प्रेमी और आदिम प्रिया का माध्यम चुना और दो विभिन्न परिणामों पर पहुँचे।’ ‘नदी के द्वीप’ में भी साही को ‘कामायनी’ की गूँज सुनाई देती है। श्टंसनमे ें ीमसक और टंसनमे ें मिसजश्, एलियट की उक्ति के सहारे इन कवियों के अन्तर को समझा जा सकता है। प्रसाद का सत्य एक दार्शनिक का सत्य हे, जबकि अज्ञेय का सत्य ‘साक्षात्कार’ का एक क्षण है, एक द्वीप है जिसे साही के अनुसार ‘हम अपने भीतर जड़ और चेतन के संकल्पित संयोग से समझ सकते हैं।’ भारती का ‘अन्ध्ाा युग’ अपराजेय विवशता का काव्य नाट्य है। दर्शन और अनुभूति के दो पदों को स्पष्ट करने के लिए साही, कुँवर नारायण की पंक्तियों को उद्धरित करते हैं ः
‘उदार दार्शनिक,
तुम्हारे दर्शन में अपनी विकलता पाता हूँ
काश अपनी विकलता में
तुम्हारा दर्शन पा सकूँ।’
अन्त में आलोचक का कहना है कि ‘दुनिया के किसी कवि से यदि अज्ञेय की निकटता दिखती है तो वह जयशंकर प्रसाद से। अज्ञेय प्रसाद को केवल विश्वविद्यालयों का कवि मानते हैं। याद आता है कि कभी वीरेन्द्र कुमार जैन या किसी दूसरे ने अपने संस्मरण में लिखा है कि अज्ञेय अपने एक काव्य-संकलन की भूमिका प्रसाद जी से लिखाना चाहते थेः वैसे ही जैसे मुक्तिबोध्ा अज्ञेय से।
इस समूची बहस की एक उपलब्ध्ाि यह है कि साही ने जहाँ एक ओर विभिन्न समयों में सक्रिय रचनात्मक उन्मेष को एक क्रम में देखते हुए कवियों के अलग-अलग वैशिष्ट्य को पहचानने का उद्यम किया है, वहाँ दूसरी ओर समान मनोभावों का निरूपण भी। एक काल को दूसरे काल से और एक कवि को दूसरे कवि से अलग दिखाने की आलोचनात्मक प्रवृत्ति से घबरा कर बहुत पहले ‘नयी समीक्षा’ के आलोचक क्लयंथ ब्रुक्स ने लिखा था कि ‘मुझे प्रतीत होता है कि अब भय यह नहीं है कि हम विभिन्न ऐतिहासिक कालों की कविताओं के बीच के अन्तर को विस्मृत कर देंगे, वरन डर यह है कि कहीं हम यह न भूल जाएँ कि उनमें साम्य क्या है ? इस बात की सम्भावना नहीं है कि उत्कृष्ट कविताओं में परस्पर विवेध्ा करने वाले तत्वों को हम भूल जाएँगे, किन्तु इस बात की पूर्ण सम्भावना है कि उनका परस्पर जो निकट सम्बन्ध्ा होता है, वह हमारी दृष्टि से ओझल हो जाएगा। ये तत्व वे हैं जिनके कारण वे कविताएँ होती हैं और जो उनकी उत्कृष्टता एवं निकृष्टता की कसौटी भी होती हैं।’ दुर्भाग्य से हमारी आलोचना में एक कवि को प्रतिष्ठित करने के लिए दूसरे कवि को अप्रतिष्ठित करने की कोशिश अभी भी जारी है।
छायावाद के मनोभाव को रचने-गढ़ने में प्रसाद के साथ निराला की उपस्थिति भी महत्वपूर्ण रही है। संस्कृति के इतिहास में जब नये बदलाव आते हैं, तो छन्द भी बदलते हैं। निराला ‘मुक्त छन्द’ को ‘मनुष्य की मुक्ति’ की तरह देखते हैं। इस छन्द से ‘स्वाध्ाीन चेतना’ फैलती है। आज यही छन्द हिन्दी कविता की मुख्य ध्ाारा है। भारतीय मन में रची-बसी अस्तिमूलक चिन्ताओं से निराला राग के स्तर पर ही नहीं, विराग के स्तर पर भी जुड़ते हैं। साही ने यद्यपि अपनी बहस में उनकी दो-चार पंक्तियों का उल्लेख किया है, पर इससे छायावाद की अन्तरंग लय-गति का एक महत्वपूर्ण अध्याय छूट जाता है। उसी तरह नयी कविता के अध्ययन में अज्ञेय के साथ जिन कवियों का उल्लेख किया है, उनमें ध्ार्मवीर भारती और कुँवर नारायण के अतिरिक्त कोई भी कवि महत्वपूर्ण नहीं है। शम्भुनाथ सिंह सामान्य गीतिकार थे। यह मेरी सीमा हो सकती है कि मैंने गिरध्ार गोपाल की कोई भी कविता नहीं पढ़ी है। इसमें न तो मुक्तिबोध्ा हैं औन न भवानी प्रसाद मिश्र तथा रघुवीर सहाय। क्या यह सच नहीं कि मुक्तिबोध्ा ने नयी कविता के आत्मसंघर्ष को नया विस्तार दिया है। वे ‘तार सप्तक’ के पहले कवि हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि साही ने ‘कल्पना’ में 1980 में प्रकाशित ‘आशंका के द्वीपः अंध्ोरे में’ को नहीं पढ़ा हो। उनके निध्ान के कुछ वर्ष पहले मुक्तिबोध्ा की रचनावली भी प्रकाशित हो गयी थी। रघुवीर सहाय ने लोकतन्त्र की व्यथा-कथा को सहज भाषा में मुक्त किया था। श्रीकान्त वर्मा ने गुस्से को कविता में शामिल कर एक नये काव्य-शास्त्र की रचना की थी। साही की समूची बहस केवल प्रसाद, बच्चन और अज्ञेय में सिमट कर ही रह गयी है। बहरहाल इसे उनका निर्णायक अध्ययन नहीं माना जा सकता। इसी पुस्तक में ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ पर भी विचार किया गया है। साही मानते हैं कि ‘आज तक हिन्दी में विशुद्ध सौन्दर्य का कवि यदि कोई हुआ है, तो वह शमशेर है और इस ‘आज तक’ में मैं हिन्दी के सब कवियों को शामिल करके कह रहा हूँ।’


(3)
‘ध्ार्मनिरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि’ नामक लेख में साही संस्कृत काव्य से लेकर बीसवीं शताब्दी के साहित्य की गहरी छानबीन करते हैं। ध्ार्म और ध्ार्मनिरपेक्षता के दो पद भारतीय समाज की मानसिक बुनावट से जुड़े हुए हैं। अलौकिक और इहलौकिक का प्रश्न साहित्य में भी उभरता है। लेकिन ये दोनों पद सुपरिभाषित पद नहीं है। पश्चिमी समाज के इतिहास में भी-एक अलग सन्दर्भ में- चर्च और राज्य के बीच द्वन्द्व होते रहे हैं। ‘सेक्युलर’ शब्द, दरअसल इसी द्वन्द्व की उद्भावना है।
साही के अनुसार ‘हिन्दुस्तान में ध्ार्मान्ध्ा और ध्ार्मनिरपेक्ष तत्वों की अध्ोड़बुन करने पर दो तरह की प्रक्रियाएँ सामने आती हैं। एक प्रक्रिया तो खास तौर पर हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों को लेकर चलती है। हिन्दूबहुल प्रजा पर मुस्लिम सुल्तानों का साम्राज्य एक अर्से तक रहा। इस दौर में यह सारा उलटफेर ध्ार्म की व्यापक लपेट में आ जाता है। कभी बादशाहों के पक्ष में हथियार की तरह, कभी शांति चाहने के लिए समस्या की तरह। यह प्रक्रिया, साही के शब्दों में ‘अभी खत्म नहीं हुई है।’ दूसरी प्रक्रिया फिरंगी साम्राज्य के आने से शुरू हुई जिसे हम ‘पश्चिमी प्रभाव’ कहते हैं। उसमें साम्राज्यवाद, बुद्धिवाद, विज्ञान, उद्योग तन्त्र, इतिहास की गति के आगे ध्ार्म का अर्थ कभी सिकुड़ता और फैलता दिखायी देता है।
साही अपने विश्लेषण में भाषा की बदलती लय गतियों को इतिहास की चालक शक्तियों से जोड़ कर देखते हैं। यहाँ पर मुझे निराला की पंक्ति याद आ रही है, ‘मनुष्यों की भाँति भाषा में भी प्राण होते हैं। मनुष्य बोलता है या भाषा बोलती है, इसका निर्णय करना ज़रा कठिन काम है।’
मध्यकाल में एक बड़ा परिवर्तन ब्रज भाषा के उभार में दिखायी देता है। ‘कुछ भी शुद्ध या तत्सम नहीं रह जाता। यह भाषा की एक तरह की प्रभुत्व सम्पन्नता है। इस लिहाज से आज की हिन्दी ब्रज की तुलना में कम प्रभुत्व सम्पन्न है।’ यहाँ यह भी सही नहीं है कि यदि जायसी फारसी में और तुलसी संस्कृत में कविता लिखते तो प्रेम-रसायन के बावजूद ‘दोनों के संसार अलग-अलग होते।’
हिन्दी-आलोचना में रीति-काव्य को प्रायः दरबारी और श्रृंगारी काव्य कहने का प्रचलन आज भी है। साही इसका नया पाठ बनाते हैं। इसकी तीन विशेषताएँ हैं। पहली यह कि रीति-कवियों ने ‘मनोयोग से ब्रज भाषा को सर्वमान्य भाषायी माध्यम बना दिया। और लोक-भाषा में तराश और प्रगल्भता की यह खोज निकाली जो न सिर्फ़ सात समुन्दर पार उसी समय के अँग्रेज़ी ‘मेटाफिजिकल’ कवियों की बौद्धिकता की जैसी लगती है, बल्कि बात पैदा करने में उनसे भी आगे निकल जाती है। दूसरी विशेषता है कि यह सब सिर्फ़ दरबारी विलासिता या विमूढ़ रूढि़वादिता के बूते का काम नहीं है- कुछ और भी है, जो बिहारी के दोहों को बांकी मुस्तैदी और घनानन्द के स्वर को कसकता हुआ पकापन देता है। तीसरी यह ‘इतना ही नहीं, सूरदास बहुत बड़े कवि हैं, रीति कवियों से भी बड़े लेकिन उनकी कविताओं में बराबर लगता है कि एक महान प्रतिभा अपने को ब्रजभाषा में अभिव्यक्त कर रही है। जबकि रीति-कविता में लगता है कि कवियों से अलग ब्रजभाषा की अपनी प्रतिभा की अभिव्यक्ति हो रही है।’ यह सर्जनात्मक स्तरीकरण है, जो भाषा को सबकी सम्पत्ति बना देती है। यह आरम्भ से अन्त तक इहलौकिक कविता है ः
‘रीझि हैं सुकवि जो तो जानौ कविताई
न तो राध्ाा-गुविन्द सुमिरन को बहानौ है।’
उन्नीसवीं शताब्दी और उसके बाद विवादों में ध्ार्म का वह निजी रूप नहीं है जिसे मध्य युग के साहित्य ने केन्द्र में डाला था। इस दूसरी प्रक्रिया पर अँग्रेज़ी साम्राज्यवाद का दबाव था। ब्रजभाषा का स्थान खड़ी बोली ने लिया था। प्रश्न था कि मेल-मिलाप वाली शैली को किस तरह मुक्त किया जाए ? किसान समाज को - जिसे दिल्ली और लखनऊ ने त्याग दिया था- अभिव्यक्त करना। भारत के समूचे इतिहास को आत्मसात करते हुए एक नया रूपक गढ़ना। साही के शब्दों में ‘हम’ और ‘वे’ के अलग-अलग तनाव उभरने लगे थे। हिन्दी और उर्दू के बीच द्वन्द्व की शुरुआत होने लगी थी। हिन्दू और मुसलमान के पारस्परिक सम्बन्ध्ाों को गढ़ने की कोशिश सत्याग्रह के युग में गांध्ाीजी कर रहे थे।’ ध्ार्म से परे जाकर अध्यात्म को सम्भव बनाने की ललक कहीं-कहीं दिख रही थी। प्रेमचन्द, प्रसाद और निराला के साहित्य में इस चिन्ता के कई निशान हैं। अन्ततः भारत का विभाजन हुआ। उस समय की त्रासदी पर सिर्फ़ अज्ञेय ने कहानी और कविता की जो रचना की वह ‘शरणार्थी’ में शामिल है। बाद में कुछ उपन्यास भी लिखे गये। अभी भी कुछ अग्नि-कण दबे हुए हैं, जो अक्सर उभर आते हैं। साही उद्विग्नता के साथ प्रश्न करते हैं कि ‘क्या सारे ध्ार्म समान रूप से सार्थक हैं ? क्या सारे ध्ार्म समान रूप से निरर्थक हैं। ?’ (साहित्य क्यों, 22)
(4)
रामचन्द्र शुक्ल, भगवतशरण उपाध्याय के बाद साही ने जायसी का पुनर्मूल्याँकन किया। यह एक तरह से अतीत के साथ रचनात्मक सम्बन्ध्ा बनाने की प्रक्रिया है। कुछ ऐसे भी आलोचक हैं, जो अपने पूर्व निधर््ाारित प्रतिमानों की वैध्ाता के लिए कवियों के पास जाते हैं। कविता के कुछ पक्षों को स्वीकार और कुछ को अन्तर्विरोध्ा कहकर अस्वीकार करते हैं।
रामचन्द्र शुक्ल ने पहली बार तुलसी के बगल में जायसी को खड़ा कर उसे समकालीन बना दिया। ‘पद्मावत’ के कथा विन्यास के पूर्वाद्र्ध को काल्पनिक और उत्तराद्र्ध को ऐतिहासिक कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्य इतना ही है कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की और रत्नसेन मारा गया। पद्मनी और पद्मावती का उल्लेख कहीं नहीं है। साही के शब्दों में-
‘सतह पर इतिहास-लोक अपनी दुनिया में पर्याप्त है और सिंहलोक अपनी आंतरिकता में स्वतः सम्पूर्ण है। लेकिन तत्वतः वे अलग नहीं रह सकते। वे एक-दूसरे को बराबर वेध्ाते रहते हैं और गहरी ट्रेजिडी को जनम देते हैं।’
‘पद्मावत’ के रचना-विध्ाान में लोक और शिष्ट का सर्जनात्मक विनियोग है। हिन्दू घरों में सुनी-कही जाने वाली कथाओं का जैसा रूपान्तरण जायसी ने किया है, उसकी तुलना किसी भी कवि से नहीं की जा सकती। साही के शब्दों में ‘यह पात्रों की व्यक्तिगत ट्रैजडी नहीं है- जिन शर्तों पर जायसी का समाज उलट-पुलट रहा है, उनके चलते समूची पृथ्वी की झूठी पड़ जाने की ट्रैजडी है।’ शुक्ल जी ने ‘पद्मावत’ को प्रेमाख्यान के रूप में देखा है, लेकिन साही के अनुसार वह प्रेम और युद्ध की मिली-जुली कहानी है। ‘इसमें इतिहास भी है और इतिहासातीत भी, काल भी है और कालातीत भी।’
‘छार उठाय लीन्ह एक मूँठी।
दीन्ह उड़ाई पिरिथिम झूठी।’
नागमती के विरह वर्णन को साही की इस भाषा में पढ़ें-
‘पूरा वर्णन, बारहमासे की शक्ल में, नागमती की वाणी द्वारा रूप ग्रहण करता है। नागमती का पार्थिव शरीर और महल की सखियाँ शुरू की कुछ पंक्तियों में झीनी-सी दिखायी देती हैं। अचानक कल्पना एक झटके से मुक्त होती है और हमारा साक्षात्कार आवाज, सिर्फ़ आवाज से होने लगता है। ...सारी पार्थिवता भी केंचुल की तरह छूट जाती है। सारी पार्थिवता तिरोहित होने लगती है। चित्तौड़ का किला, राजमहल सब तिरोहित हो जाता है। यहाँ तक कि नागमती का पार्थिव शरीर भी तिरोहित हो जाता है।’ (जायसीः पृ. 32)
आलोचक का कहना है कि ‘जायसी हिन्दी के पहले विध्ािवत् कवि हैं’ और यह भी कि पद्मावत ‘शायद हिन्दुस्तान या सम्भवतः एशिया की ध्ारती पर लिखा गया एकमात्र ग्रन्थ है, जो यूनानियों की ट्रैजडी के काफी निकट है।’ ज़ाहिर है कि जायसी की समूची सर्जनात्मकता बुनियादी तौर पर ध्ार्मनिरपेक्ष सर्जनात्मकता है।
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साही के अनुसार टी.एस. एलियट का उल्लेख पहली बार जवाहरलाल नेहरू ने 1931 में किया है। बीसवीं शताब्दी के इस महाकवि और आलोचक का विश्वव्यापी प्रभाव रहा है। ‘वेस्टलैण्ड’ से ही आध्ाुनिक कविता की शुरुआत होती है। एलियट के आलोचनात्मक पदों का प्रयोग आज भी किया जाता है। साही प्रश्न पूछते हैं कि भारतीय मानस अथवा हिन्दी मानस ने एलियट का क्या उपयोग किया ? ‘छटवाँ दशक’ में वे भी उनके आलोचनात्मक प्रत्ययों का इस्तेमाल करते हैं। यह सही है कि ‘वेस्टलैण्ड’ को हम तन्मय होकर नहीं, सतर्क होकर ही पढ़ सकते हैं। लगभग 446 पंक्तियों में रची गई इस कविता में छोटे-छोटे बिम्ब, प्रतीक, मिथक और दर्शन की एकतान समग्रता है। साही उसके सन्दर्भ में साध्ाारणीयकरण का प्रश्न उठाते हैं। उनका यह भी कहना है कि ‘टेनिसन और आर्नोल्ड से बहस की जा सकती है, एलियट से नहीं... क्योंकि वह कहते हैं कि हम यूरोप को ही आत्मसात करके बोल रहे हैं, वही हमारी हड्डी में है और उतनी ही हड्डी हमारी संस्कृति है।... मैं भारतवर्ष को आत्मसात करके बोल रहा हूँः इस अर्थ में आपके जैसा आध्ाुनिक हूँ।’ (सर्जन और सम्प्रेषण, पृ. 42)
अज्ञेय का ‘शेखरः एक जीवनी’ नामक उपन्यास 1940 में प्रकाशित हुआ। उसके आरम्भ में ही एलियट का यह वाक्य हैः भोगने वाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार में सदा एक अन्तर रहता है और जितना बड़ा कलाकार होता है, उतना ही भारी यह अन्तर होता है।’ अज्ञेय का ‘रूढि़ और मौलिकता’ लेख जो 1945 में प्रकाशित हुआ- एलियट के निबन्ध्ा का भावानुवाद है। कुँवर नारायण ने ‘हिन्दी नयी कविता और टी.एस. एलियट’ नामक लेख लिखा, वह 1960 की ‘कल्पना’ में प्रकाशित है। अशोक वाजपेयी के पहले काव्य संकलन ‘शहर अब भी सम्भावना है’ (1966) की शुरुआत में ही ‘मेरे आरम्भ में ही मेरा अन्त है’ एलियट की यह युक्ति दर्ज है। रमेशचन्द्र शाह ने यीट्स और एलियट पर शोध्ा-ग्रन्थ लिखा।
दूसरी ओर एलियट और एज़रा पाउण्ड पर केन्द्रित कई लेखों में उन्हें प्रतिक्रियावादी, फासिस्ट-समर्थक और ध्ार्म-भीरू मानकर उनकी कृतियों को नकारात्मक मूल्यों का समुच्चय कहा गया। नामवर सिंह को ‘कामायनी’ के सारस्वत नगर को देखकर ‘वेस्टलैण्ड’ की याद आयीः ‘दोनों में अन्तर भी काफी है। एलियट का ‘वेस्टलैण्ड’ यूरोप, विशेषतः इंग्लैण्ड की ह्रासोन्मुखी बूज्र्वा सभ्यता का प्रतीक है, जबकि प्रसाद का सारस्वत नगर भारत के विकासोन्मुख राष्ट्र जागरण का प्रतीक है। (इतिहास और आलोचना, पृ. 121)
मुक्तिबोध्ा ने अपने जीवन-काल में सिर्फ़ तीन व्यक्तियों पर चार कविताएँ लिखीं। पहली कविता है- ‘रबिन्द्रनाथ’ (1944-45), दूसरी ‘बी.स्ता. बीमार स्तालिन’ (1953) और फिर दो कविताएँ एलियट पर ः
पढ़ रहा था तुम्हारे काव्य को...
और... मेरे बिस्तरे के पास
नीरव टिमटिमाते दीप के
नीचे अँध्ोरे में घिरे
भोले अँध्ोरे में घिरे सारे सुझाव, गहन संकेत।
जाने क्या बताते थे।
‘अरे! मासूम दीवारें बिचारी
देखते ही रह गयीं
वह तुम्हारी वास्तविकता मात्र है सुझाव
या कुछ और भी ?
.............
सौ चींटियाँ रेंगी विचारों की
उठाने लाश भारी झींगुर नहीं है वह
लेकिन नहीं ! झींगुर नहीं है वह
भयानक वास्तविकता है
भयंकर व्यर्थता का भान
उकता हुआ सुनसान छाया है
...............
हमारे यहाँ भी है ह्रास !
काली सील खा-खाकर पलस्त गिर रहे
प्राचीर की प्राचीन उँगली अस्थियाँ खुल गयीं
गुंजान स्वार्थों की घमण्डी मूँछ लहरा रही
सूनी हवाओं में
(सम्भावित रचनाकाल, 1946, रचनावलीः एक, पृ. 164)
दूसरी अप्रकाशित कविता का शीर्षक है - ‘श्रीयुत टी.एस. एलियट’
है साँझ के चुपचाप मेघ-प्रसार में
निःस्पन्द सड़कों की अशोभन छातियाँ
सूनी खुली बाहें
नपुंसक नगर-व्यापी शून्यता
का आसमान
(सम्भावित रचनाकाल 1945)
‘हमारे यहाँ भी ह्रास’ जैसी पंक्ति से क्या यह स्पष्ट नहीं होता कि मुक्तिबोध्ा ध्ौर्य और ध्यान से ‘वेस्टलैण्ड’ को पढ़ रहे हैं। यह सही है कि 1922 के बाद ध्ार्म, राज्य, शिक्षा आदि पर एलियट के विचार सिकुड़ने लगे थे। लेकिन इन विचारों के आध्ाार पर उनकी कृतियों का अवमूल्यन नहीं किया जा सकता। ‘वेस्टलैण्ड’ सार्वभौमिक भाव-बोध्ा की ऐसी कविता है, जो गृहीता को भी रचयिता बना देती है। मुक्तिबोध्ा की स्मृति में एलियट की कई पंक्तियाँ गूँजती रहती थींः ‘काफी हाउसों में यूँ ही मेरे दिमाग में तनाव पैदा हो जाता है और मुझे टी.एस. एलियट की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं ः
ॅम ंतम जीम ींससवू उमद
ॅम ंतम जीम ेजनििमक उमद
(हम पोले-पोले आदमी हैं, हम भुजभरे लोग हैं)
ॅम उमेंनतम वनत सपमि ूपजी बवििमम ेचववदे
(हम काफी के चम्मचों से अपनी जि़न्दगी को मापते हैं)
अन्तिम पंक्ति ज्भ्म् स्व्टम् ैव्छळ व्थ् श्र ।स्थ्त्म्क् च्त्न्थ्त्व्ब्ज्ञ से ली गयी है। मूल पाठ में वह श्प् ींअम उमेंनतमक वनज उल सपमि ूपजी बवििमम ेचववदेश् है। स्मृति में आने के कारण यह बदल गयी है।
इस लेख में विजयदेव नारायण साही की रचनात्मक आलोचना के कुछ पक्षों पर ही विचार किया गया है। दुर्भाग्य है कि अब तक उनकी पुस्तकों का व्यवस्थित प्रकाशन नहीं हुआ। समय का निधर््ाारण भी गलत है। अशोक वाजपेयी की पहल पर साही की रचनावली के प्रकाशन की व्यवस्था की जा रही है। अन्त में साही की एक कविता से इस लेख का समापन करेंगे ः
क्रतो स्मर...
मैंने तुम्हारी मृत्यु को सामने देख कर
हिरण्य ढक्कन उघाड़ दिया है
इससे अध्ािक मैंने कुछ नहीं किया।
- - - - -
देखो, इस अग्निकुण्ड में
बलखाती हुई, मणियाँ उगलती, बदहवास शताब्दियाँ
जन्मेजय के नागों की तरह
आ-आकर गिर रही हैं
और उनकी मज्जा से उद्वेलित
अग्नि कमल और भी व्याकुल होकर
ऊपर फुफकारता है
- - - - -
यही परम्परा है, यही क्रान्ति है
यही जिजीविषा है
यही आयु है, यही नैरन्तर्य है।
इस निष्कलंक सर्वनाश के अतिरिक्त
कोई नैरन्तर्य नहीं है। (मछलीघरः पृ. 90)

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